how to start a news paper or magazine, कैसे शुरू करें एक नया समाचार पत्र या पत्रिका

कैसे शुरू करें एक नया समाचार पत्र या पत्रिका. यह एक बड़ा सवाल है और अक्सर इसका जबाव लोगों के पास नहीं होता. जब भी किसी को एक नया समाचार पत्र या पत्रिका शुरू करना होता है वह अपने आसपास किसी विशेषज्ञ की तलाश करता है. सामान्यत: पत्रकार या अखबारों से जुड़े लोग. कुछ लोगों को सही सलाहकार मिल जाते हैं, लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि लोग उसे मुर्गा समझकर काट डालते हैं. कई बंद हो चुके अखबार मालिक अक्सर अपनी कुछ इस प्रकार का दर्द आएदिन सुनाया करते हैं.
मैने दोनों पक्षों को सुना और देखा है. नतीजतन मैं यह कह सकता हूं कि सामान्यत: लोगों के पास यह जानकारी ही नहीं है कि उन्हें करना क्या चाहिए. एक व्यक्ति हाथ में बजट लिए सामने आता है. मीडिया से जुड़े लोग अपनी खिल्ली उडऩे के डर से यह कहने का साहस ही नहीं कर पाते कि हमें इसकी जानकारी नहीं है और फिर अधकचरा जानकारी के आधार पर जो कुछ भी वो करते हैं, उसका परिणाम भुगतना पड़ता है उस व्यक्ति को जो एक समाचार पत्र या पत्रिका चलाने के सपने सजाए बैठा था.

इसी समस्या के निदान के लिए यह पोस्ट प्रस्तुत की जा रही है. जो समय-समय पर अपडेट होती रहेगी, अत: कृपया एक बार पढ़कर या इसे कापी करके न रखें बल्कि लगातार इसके अपडेट्स देखते रहें ताकि बदलते नियमों से सभी परिचित हो सकें.

Continue reading

पहले इन रिश्तेदारियों पर एक नज़र डालिये, नापाक गठजोड़

पहले इन रिश्तेदारियों पर एक नज़र डालिये, तब आप खुद ही समझ जायेंगे कि
कैसे और क्यों “मीडिया का अधिकांश हिस्सा” हिन्दुओं और हिन्दुत्व का
विरोधी है, किस प्रकार इन लोगों ने एक “नापाक गठजोड़” तैयार कर लिया है,
किस तरह ये सब लोग मिलकर सत्ता संस्थान के शिखरों के करीब रहते हैं, किस
तरह से इन प्रभावशाली(?) लोगों का सरकारी नीतियों में दखल होता है… आदि।
पेश हैं रिश्ते ही रिश्ते – (दिल्ली की दीवारों पर लिखा होता है वैसे
वाले नहीं, ये हैं असली रिश्ते)
-सुज़ाना अरुंधती रॉय, प्रणव रॉय (नेहरु डायनेस्टी टीवी- NDTV) की भांजी
हैं।-प्रणव रॉय “काउंसिल ऑन फ़ॉरेन रिलेशन्स” के इंटरनेशनल सलाहकार बोर्ड
के सदस्य हैं।-इसी बोर्ड के एक अन्य सदस्य हैं मुकेश अम्बानी।-प्रणव रॉय
की पत्नी हैं राधिका रॉय।-राधिका रॉय, बृन्दा करात की बहन हैं।-बृन्दा
करात, प्रकाश करात (CPI) की पत्नी हैं।
-प्रकाश करात चेन्नै के “डिबेटिंग क्लब” के सदस्य थे।-एन राम, पी
चिदम्बरम और मैथिली शिवरामन भी इस ग्रुप के सदस्य थे।-इस ग्रुप ने एक
पत्रिका शुरु की थी “रैडिकल रीव्यू”।-CPI(M) के एक वरिष्ठ नेता सीताराम
येचुरी की पत्नी हैं सीमा चिश्ती।-सीमा चिश्ती इंडियन एक्सप्रेस की
“रेजिडेण्ट एडीटर” हैं।-बरखा दत्त NDTV में काम करती हैं।-बरखा दत्त की
माँ हैं श्रीमती प्रभा दत्त।-प्रभा दत्त हिन्दुस्तान टाइम्स की मुख्य
रिपोर्टर थीं।-राजदीप सरदेसाई पहले NDTV में थे, अब CNN-IBN के हैं
(दोनों ही मुस्लिम चैनल हैं)।-राजदीप सरदेसाई की पत्नी हैं सागरिका
घोष।-सागरिका घोष के पिता हैं दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक भास्कर
घोष।-सागरिका घोष की आंटी रूमा पॉल हैं।-रूमा पॉल उच्चतम न्यायालय की
पूर्व न्यायाधीश हैं।-सागरिका घोष की दूसरी आंटी अरुंधती घोष
हैं।-अरुंधती घोष संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थाई प्रतिनिधि
हैं।-CNN-IBN का “ग्लोबल बिजनेस नेटवर्क” (GBN) से व्यावसायिक समझौता
है।-GBN टर्नर इंटरनेशनल और नेटवर्क-18 की एक कम्पनी है।-NDTV भारत का
एकमात्र चैनल है को “अधिकृत रूप से” पाकिस्तान में दिखाया जाता है।-दिलीप
डिसूज़ा PIPFD (Pakistan-India Peoples’ Forum for Peace and Democracy)
के सदस्य हैं।-दिलीप डिसूज़ा के पिता हैं जोसेफ़ बेन डिसूज़ा।-जोसेफ़ बेन
डिसूज़ा महाराष्ट्र सरकार के पूर्व सचिव रह चुके हैं।
-तीस्ता सीतलवाड भी PIPFD की सदस्य हैं।-तीस्ता सीतलवाड के पति हैं जावेद
आनन्द।-जावेद आनन्द एक कम्पनी सबरंग कम्युनिकेशन और एक संस्था “मुस्लिम
फ़ॉर सेकुलर डेमोक्रेसी” चलाते हैं।-इस संस्था के प्रवक्ता हैं जावेद
अख्तर।-जावेद अख्तर की पत्नी हैं शबाना आज़मी।
-करण थापर ITV के मालिक हैं।-ITV बीबीसी के लिये कार्यक्रमों का भी
निर्माण करती है।-करण थापर के पिता थे जनरल प्राणनाथ थापर (1962 का चीन
युद्ध इन्हीं के नेतृत्व में हारा गया था)।-करण थापर बेनज़ीर भुट्टो और
ज़रदारी के बहुत अच्छे मित्र हैं।-करण थापर के मामा की शादी नयनतारा सहगल
से हुई है।-नयनतारा सहगल, विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी हैं।-विजयलक्ष्मी
पंडित, जवाहरलाल नेहरू की बहन हैं।
-मेधा पाटकर नर्मदा बचाओ आन्दोलन की मुख्य प्रवक्ता और कार्यकर्ता
हैं।-नबाआं को मदद मिलती है पैट्रिक मेकुल्ली से जो कि “इंटरनेशनल रिवर्स
नेटवर्क (IRN)” संगठन में हैं।-अंगना चटर्जी IRN की बोर्ड सदस्या
हैं।-अंगना चटर्जी PROXSA (Progressive South Asian Exchange Network) की
भी सदस्या हैं।-PROXSA संस्था, FOIL (Friends of Indian Leftist) से पैसा
पाती है।-अंगना चटर्जी के पति हैं रिचर्ड शेपायरो।-FOIL के सह-संस्थापक
हैं अमेरिकी वामपंथी बिजू मैथ्यू।-राहुल बोस (अभिनेता) खालिद अंसारी के
रिश्ते में हैं।-खालिद अंसारी “मिड-डे” पब्लिकेशन के अध्यक्ष हैं।-खालिद
अंसारी एमसी मीडिया लिमिटेड के भी अध्यक्ष हैं।-खालिद अंसारी, अब्दुल
हमीद अंसारी के पिता हैं।-अब्दुल हमीद अंसारी कांग्रेसी हैं।-एवेंजेलिस्ट
ईसाई और हिन्दुओं के खास आलोचक जॉन दयाल मिड-डे के दिल्ली संस्करण के
प्रभारी हैं।
-नरसिम्हन राम (यानी एन राम) दक्षिण के प्रसिद्ध अखबार “द हिन्दू” के
मुख्य सम्पादक हैं।-एन राम की पहली पत्नी का नाम है सूसन।-सूसन एक आयरिश
हैं जो भारत में ऑक्सफ़ोर्ड पब्लिकेशन की इंचार्ज हैं।-विद्या राम, एन
राम की पुत्री हैं, वे भी एक पत्रकार हैं।-एन राम की हालिया पत्नी मरियम
हैं।-त्रिचूर में आयोजित कैथोलिक बिशपों की एक मीटिंग में एन राम,
जेनिफ़र अरुल और केएम रॉय ने भाग लिया है।-जेनिफ़र अरुल, NDTV की दक्षिण
भारत की प्रभारी हैं।-जबकि केएम रॉय “द हिन्दू” के संवाददाता हैं।-केएम
रॉय “मंगलम” पब्लिकेशन के सम्पादक मंडल सदस्य भी हैं।-मंगलम ग्रुप
पब्लिकेशन एमसी वर्गीज़ ने शुरु किया है।-केएम रॉय को “ऑल इंडिया कैथोलिक
यूनियन लाइफ़टाइम अवार्ड” से सम्मानित किया गया है।-“ऑल इंडिया कैथोलिक
यूनियन” के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं जॉन दयाल।-जॉन दयाल “ऑल इंडिया
क्रिश्चियन काउंसिल”(AICC) के सचिव भी हैं।-AICC के अध्यक्ष हैं डॉ
जोसेफ़ डिसूज़ा।-जोसेफ़ डिसूज़ा ने “दलित फ़्रीडम नेटवर्क” की स्थापना की
है।-दलित फ़्रीडम नेटवर्क की सहयोगी संस्था है “ऑपरेशन मोबिलाइज़ेशन
इंडिया” (OM India)।-OM India के दक्षिण भारत प्रभारी हैं कुमार
स्वामी।-कुमार स्वामी कर्नाटक राज्य के मानवाधिकार आयोग के सदस्य भी
हैं।-OM India के उत्तर भारत प्रभारी हैं मोजेस परमार।-OM India का
लक्ष्य दुनिया के उन हिस्सों में चर्च को मजबूत करना है, जहाँ वे अब तक
नहीं पहुँचे हैं।-OMCC दलित फ़्रीडम नेटवर्क (DFN) के साथ काम करती
है।-DFN के सलाहकार मण्डल में विलियम आर्मस्ट्रांग शामिल हैं।-विलियम
आर्मस्ट्रांग, कोलोरेडो (अमेरिका) के पूर्व सीनेटर हैं और वर्तमान में
कोलोरेडो क्रिश्चियन यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेण्ट हैं। यह यूनिवर्सिटी
विश्व भर में ईसा के प्रचार हेतु मुख्य रणनीतिकारों में शुमार की जाती
है।-DFN के सलाहकार मंडल में उदित राज भी शामिल हैं।-उदित राज के जोसेफ़
पिट्स के अच्छे मित्र भी हैं।-जोसेफ़ पिट्स ने ही नरेन्द्र मोदी को वीज़ा
न देने के लिये कोंडोलीज़ा राइस से कहा था।-जोसेफ़ पिट्स “कश्मीर फ़ोरम”
के संस्थापक भी हैं।-उदित राज भारत सरकार के नेशनल इंटीग्रेशन काउंसिल
(राष्ट्रीय एकता परिषद) के सदस्य भी हैं।-उदित राज कश्मीर पर बनी एक
अन्तर्राष्ट्रीय समिति के सदस्य भी हैं।-सुहासिनी हैदर, सुब्रह्मण्यम
स्वामी की पुत्री हैं।-सुहासिनी हैदर, सलमान हैदर की पुत्रवधू हैं।-सलमान
हैदर, भारत के पूर्व विदेश सचिव रह चुके हैं, चीन में राजदूत भी रह चुके
हैं।
-रामोजी ग्रुप के मुखिया हैं रामोजी राव।-रामोजी राव “ईनाडु” (सर्वाधिक
खपत वाला तेलुगू अखबार) के संस्थापक हैं।-रामोजी राव ईटीवी के भी मालिक
हैं।-रामोजी राव चन्द्रबाबू नायडू के परम मित्रों में से हैं।
-डेक्कन क्रॉनिकल के चेयरमैन हैं टी वेंकटरमन रेड्डी।-रेड्डी साहब
कांग्रेस के पूर्व राज्यसभा सदस्य हैं।-एमजे अकबर डेक्कन क्रॉनिकल और
एशियन एज के सम्पादक हैं।-एमजे अकबर कांग्रेस विधायक भी रह चुके
हैं।-एमजे अकबर की पत्नी हैं मल्लिका जोसेफ़।-मल्लिका जोसेफ़, टाइम्स ऑफ़
इंडिया में कार्यरत हैं।
-वाय सेमुअल राजशेखर रेड्डी आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं।-सेमुअल
रेड्डी के पिता राजा रेड्डी ने पुलिवेन्दुला में एक डिग्री कालेज व एक
पोलीटेक्नीक कालेज की स्थापना की।-सेमुअल रेड्डी ने कहा है कि आंध्रा
लोयोला कॉलेज में पढ़ाई के दौरान वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उक्त
दोनों कॉलेज लोयोला समूह को दान में दे दिये।-सेमुअल रेड्डी की बेटी हैं
शर्मिला।-शर्मिला की शादी हुई है “अनिल कुमार” से। अनिल कुमार भी एक
धर्म-परिवर्तित ईसाई हैं जिन्होंने “अनिल वर्ल्ड एवेंजेलिज़्म” नामक
संस्था शुरु की और वे एक सक्रिय एवेंजेलिस्ट (कट्टर ईसाई धर्म प्रचारक)
हैं।-सेमुअल रेड्डी के पुत्र जगन रेड्डी युवा कांग्रेस नेता हैं।-जगन
रेड्डी “जगति पब्लिकेशन प्रा. लि.” के चेयरमैन हैं।-भूमना करुणाकरा
रेड्डी, सेमुअल रेड्डी की करीबी हैं।-करुणाकरा रेड्डी, तिरुमला तिरुपति
देवस्थानम की चेयरमैन हैं।-चन्द्रबाबू नायडू ने आरोप लगाया था कि “लैंको
समूह” को जगति पब्लिकेशन्स में निवेश करने हेतु दबाव डाला गया था।-लैंको
कम्पनी समूह, एल श्रीधर का है।-एल श्रीधर, एल राजगोपाल के भाई हैं।-एल
राजगोपाल, पी उपेन्द्र के दामाद हैं।-पी उपेन्द्र केन्द्र में कांग्रेस
के मंत्री रह चुके हैं।-सन टीवी चैनल समूह के मालिक हैं कलानिधि
मारन-कलानिधि मारन एक तमिल दैनिक “दिनाकरन” के भी मालिक हैं।-कलानिधि के
भाई हैं दयानिधि मारन।-दयानिधि मारन केन्द्र में संचार मंत्री
थे।-कलानिधि मारन के पिता थे मुरासोली मारन।-मुरासोली मारन के चाचा हैं
एम करुणानिधि (तमिलनाडु के मुख्यमंत्री)।-करुणानिधि ने ‘कैलाग्नार टीवी”
का उदघाटन किया।-कैलाग्नार टीवी के मालिक हैं एम के अझागिरी।-एम के
अझागिरी, करुणानिधि के पुत्र हैं।-करुणानिधि के एक और पुत्र हैं एम के
स्टालिन।-स्टालिन का नामकरण रूस के नेता के नाम पर किया गया।-कनिमोझि,
करुणानिधि की पुत्री हैं, और केन्द्र में राज्यमंत्री हैं।-कनिमोझी, “द
हिन्दू” अखबार में सह-सम्पादक भी हैं।-कनिमोझी के दूसरे पति जी अरविन्दन
सिंगापुर के एक जाने-माने व्यक्ति हैं।-स्टार विजय एक तमिल चैनल है।-विजय
टीवी को स्टार टीवी ने खरीद लिया है।-स्टार टीवी के मालिक हैं रूपर्ट
मर्डोक।
-Act Now for Harmony and Democracy (अनहद) की संस्थापक और ट्रस्टी हैं
शबनम हाशमी।-शबनम हाशमी, गौहर रज़ा की पत्नी हैं।-“अनहद” के एक और
संस्थापक हैं के एम पणिक्कर।-के एम पणिक्कर एक मार्क्सवादी इतिहासकार
हैं, जो कई साल तक ICHR में काबिज रहे।-पणिक्कर को पद्मभूषण भी
मिला।-हर्ष मन्दर भी “अनहद” के संस्थापक हैं।-हर्ष मन्दर एक मानवाधिकार
कार्यकर्ता हैं।-हर्ष मन्दर, अजीत जोगी के खास मित्र हैं।-अजीत जोगी,
सोनिया गाँधी के खास हैं क्योंकि वे ईसाई हैं और इन्हीं की अगुआई में
छत्तीसगढ़ में जोरशोर से धर्म-परिवर्तन करवाया गया और बाद में दिलीपसिंह
जूदेव ने परिवर्तित आदिवासियों की हिन्दू धर्म में वापसी करवाई।-कमला
भसीन भी “अनहद” की संस्थापक सदस्य हैं।-फ़िल्मकार सईद अख्तर मिर्ज़ा
“अनहद” के ट्रस्टी हैं।
-मलयालम दैनिक “मातृभूमि” के मालिक हैं एमपी
वीरेन्द्रकुमार-वीरेन्द्रकुमार जद(से) के सांसद हैं (केरल से)-केरल में
देवेगौड़ा की पार्टी लेफ़्ट फ़्रण्ट की साझीदार है।-शशि थरूर पूर्व
राजनैयिक हैं।-चन्द्रन थरूर, शशि थरूर के पिता हैं, जो कोलकाता की
आनन्दबाज़ार पत्रिका में संवाददाता थे।-चन्द्रन थरूर ने 1959 में द
स्टेट्समैन” की अध्यक्षता की।-शशि थरूर के दो जुड़वाँ लड़के ईशान और
कनिष्क हैं, ईशान हांगकांग में “टाइम्स” पत्रिका के लिये काम करते
हैं।-कनिष्क लन्दन में “ओपन डेमोक्रेसी” नामक संस्था के लिये काम करते
हैं।-शशि थरूर की बहन शोभा थरूर की बेटी रागिनी (अमेरिकी पत्रिका)
“इंडिया करंट्स” की सम्पादक हैं।-परमेश्वर थरूर, शशि थरूर के चाचा हैं और
वे “रीडर्स डाइजेस्ट” के भारत संस्करण के संस्थापक सदस्य हैं।
-शोभना भरतिया हिन्दुस्तान टाइम्स समूह की अध्यक्षा हैं।-शोभना भरतिया
केके बिरला की पुत्री और जीड़ी बिरला की पोती हैं-शोभना राज्यसभा की
सदस्या भी हैं जिन्हें सोनिया ने नामांकित किया था।-शोभना को 2005 में
पद्मश्री भी मिल चुकी है।-शोभना भरतिया सिंधिया परिवार की भी नज़दीकी
मित्र हैं।-करण थापर भी हिन्दुस्तान टाइम्स में कालम लिखते हैं।-पत्रकार
एन राम की भतीजी की शादी दयानिधि मारन से हुई है।
यह बात साबित हो चुकी है कि मीडिया का एक खास वर्ग हिन्दुत्व का विरोधी
है, इस वर्ग के लिये भाजपा-संघ के बारे में नकारात्मक प्रचार करना,
हिन्दू धर्म, हिन्दू देवताओं, हिन्दू रीति-रिवाजों, हिन्दू साधु-सन्तों
सभी की आलोचना करना एक “धर्म” के समान है। इसका कारण हैं,
कम्युनिस्ट-चर्चपरस्त-मुस्लिमपरस्त-तथाकथित सेकुलरिज़्म परस्त लोगों की
आपसी रिश्तेदारी, सत्ता और मीडिया पर पकड़ और उनके द्वारा एक “गैंग” बना
लिया जाना। यदि कोई समूह या व्यक्ति इस गैंग के सदस्य बन जायें, प्रिय
पात्र बन जायें तब उनके और उनकी बिरादरी के खिलाफ़ कोई खबर आसानी से नहीं
छपती। जबकि हिन्दुत्व पर ये सब लोग मिलजुलकर हमला बोलते
हैं|………..

2010 in review

The stats helper monkeys at WordPress.com mulled over how this blog did in 2010, and here’s a high level summary of its overall blog health:

Healthy blog!

The Blog-Health-o-Meter™ reads This blog is doing awesome!.

Crunchy numbers

Featured image

A Boeing 747-400 passenger jet can hold 416 passengers. This blog was viewed about 2,100 times in 2010. That’s about 5 full 747s.

In 2010, there were 51 new posts, not bad for the first year! There were 50 pictures uploaded, taking up a total of 6mb. That’s about 4 pictures per month.

The busiest day of the year was June 11th with 43 views. The most popular post that day was ठीकरा फोड़कर मीडिया जिम्मेदारी से नहीं बच सकता.

Where did they come from?

The top referring sites in 2010 were mediamughal.com, chitthajagat.in, google.co.in, hi.wordpress.com, and WordPress Dashboard.

Some visitors came searching, mostly for मीडिया की भूमिका, bhadash.com, bhadash, pradesh today, and pradeshtoday.com.

Attractions in 2010

These are the posts and pages that got the most views in 2010.

1

ठीकरा फोड़कर मीडिया जिम्मेदारी से नहीं बच सकता June 2010
1 comment and 1 Like on WordPress.com,

2

कितनी अहम है मीडिया की भूमिका July 2010
1 comment

3

Pradesh Today Required Dgm Marketing in Bhopal, Indore, Jabalpur, Gwalior September 2010
1 comment

4

हिन्दू का इतिहास: सऊदी अरब में शोध June 2010

5

ये गुण एक होने चाहिए अच्छे पत्रकार में July 2010

Jobs in Bhopal, Lots of Nokriyan in Bhopal, Jobs in Sales and Marketing

UP COMING LARGEST NOON HINDI DAILY PRADESH TODAY
Required
Here is the Great opportunity to make “CAREER” in media. UP COMING LARGEST NOON HINDI DAILY PRADESH TODAY BHOPAL needs competent candidates for all over MP/CG Places i.e. BHOPAL. INDORE, JABALPUR, GWALIOR & RAIPUR and All Districts for the following departments. Great Opportunity to get Maximum Returns for your talent. Send your resume immediately
SALES & MARKETING

BUSINESS DEVELOPMENT MANAGER
15
MBA/PG, with minimum 4 yrs experience.

BUSINESS DEVELOPMENT OFFICER 15
BBA / Graduate with minimum 2 yrs experience.

BUSINESS DEVELOPMENT EXECUTIVE 50
Graduate with minimum 1yr experience.

All candidates will be responsible for achieving sales targets, in allotted area. He /She should have a pleasing personality & skills of marketing.


ACCOUNTS

SR. MANAGER FINANCE 02
CA (Inter) or MBA (Finance) with minimum 5 yrs experience.

ACCOUNTS ASSISTANT 20
M.Com with minimum 3 yrs experience.

Send your CV / Resume :

1. Address : C/o Vishwatech Web Design & Development
71, Sector-B Kasturba Nagar, Chetak Bridge, Bhopal.
2. Timing : 11.00 AM to 7.00 PM

3. Thru E-mail : hr.pradeshtoday@gmail.com

(Candidate should be specify a location of the post.)

SALARY : No bar for right candidate

FRESHERS CAN ALSO APPLY FOR TRAINEE

BACK OFFICE / DESIGNING

BILLING / MIS. 10
B.Com with minimum 2 yrs experience.

ADVERTISEMENT DESIGNER 10
Graduate with minimum 3 yrs experience.
Corel Draw, Photoshop & Quark Express will be must.

संगठित जनता की एकजुट ताकत के आगे झुकना सत्ता की मजबूरी!

“या तो हम अत्याचारियों के जुल्म और मनमानी को सहते रहें या समाज के सभी अच्छे, सच्चे, देशभक्त, ईमानदार और न्यायप्रिय-सरकारी कर्मचारी, अफसर तथा आम लोग एकजुट होकर एक-दूसरे की ढाल बन जायें।”

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
=================
आज हमारे लिये सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण है कि देश या समाज के लिये न सही, कम से कम अपने आपके और अपनी आने वाली पीढियों के सुखद एवं सुरक्षित भविष्य के लिये तो हम अपने वर्तमान जीवन को सुधारें। यदि हम सब लोग केवल अपने वर्तमान को सुधारने का ही दृढ निश्चय कर लें तो आने वाले कल का अच्छा होना तय है, लेकिन हमारे आज अर्थात् वर्तमान के हालात तो दिन-प्रतिदिन बिगडते ही जा रहे हैं। हम चुपचाप सबकुछ देखते और झेलते रहते हैं। जिसका दुष्परिणाम यह है कि आज हमारे देश में जिन लोगों के हाथों में सत्ता की ताकत हैं, उनमें से अधिकतर का सच्चाई, ईमानदारी एवं इंसाफ से दूर-दूर का भी नाता नहीं रह गया है। अधिकतर भ्रष्टाचार के दलदल में अन्दर तक धंसे हुए हैं और अब तो ये लोग अपराधियों को संरक्षण भी दे रहे हैं। ताकतवर लोग जब चाहें, जैसे चाहें देश के मान-सम्मान, कानून, व्यवस्था और संविधान के साथ बलात्कार करके चलते बनते हैं और सजा होना तो दूर इनके खिलाफ मुकदमे तक दर्ज नहीं होते! जबकि बच्चे की भूख मिटाने हेतु रोटी चुराने वाली अनेक माताएँ जेलों में बन्द हैं। इन भ्रष्ट एवं अत्याचारियों के खिलाफ यदि कोई आम व्यक्ति या ईमानदार अफसर या कर्मचारी आवाज उठाना चाहे, तो उसे तरह-तरह से प्रताड़ित एवं अपमानित करने का प्रयास किया जाता है और सबसे दु:खद तो ये है कि पूरी की पूरी व्यवस्था अंधी, बहरी और गूंगी बनी देखती रहती है।

अब तो हालात इतने बिगडते चुके हैं कि मसाले, घी, तेल और दवाइयों तक में धडल्ले से मिलावट की जा रही है। ऐसे में कितनी माताओं की कोख मिलावट के कारण उजड जाती है और कितनी नव-प्रसूताओं की मांग का सिन्दूर नकली दवाईयों के चलते युवावस्था में ही धुल जाता है, कितने पिताओं को कन्धा देने वाले तक नहीं बचते, इस बात का अन्दाजा भी नहीं लगाया जा सकता। इस सबके उपरान्त भी इन भ्रष्ट एवं अत्याचारियों का एकजुट होकर सामना करने के बजाय हम चुप्पी साधकर, अपने कानूनी हकों तक के लिये भी गिडगिडाते रहते हैं।

अधिकतर लोग तो इस डर से ही चुप्पी साध लेते हैं कि यदि वे किसी के खिलाफ बोलेंगे तो उन्हें भी फंसाया जा सकता है। इसलिये वे अपने घरों में दुबके रहते हैं! ऐसे लोगों से मेरा सीधा-सीधा सवाल है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले समय में हमारे आसपास की गंदगी को साफ करने वाले यह कहकर सफाई करना बन्द कर देंगे, कि गन्दगी साफ करेंगे तो गन्दगी से बीमारी होने का खतरा है? खानों में होने वाली दुर्घटनाओं से भयभीत होकर खनन मजदूर यह कहकर कि खान गिरने से जीवन को खतरा है, खान में काम करना बंद कर दे, तो क्या हमें खनिज उपलब्ध हो पायेंगे? इलाज करते समय मरीजों से रोगाणुओं से ग्रसित होने के भय से डॉक्टर रोगियों का उपचार करना बन्द कर दें, तो बीमारों को कैसे बचाया जा सकेगा? आतंकियों, नक्सलियों एवं गुण्डों के हाथों आये दिन पुलिसवालों के मारे जाने के कारण यदि पुलिस यह सोचकर इनके खिलाफ कार्यवाही करना बन्द कर दें कि उनको और उनके परिवार को नुकसान पहुँचा सकता हैं, तो क्या सामाज की कानून व्यवस्था नियन्त्रित रह सकती है? पुलिस के बिना क्या हमारी जानमाल की सुरक्षा सम्भव है? आतंकियों तथा दुश्मनों के हाथों मारे जाने वाले फौजियों के शवों को देखकर, फौजी सरहद पर पहरा देना बंद कर दें, तो क्या हम अपने घरों में चैन की नींद सो पाएंगे?

यदि नाइंसाफी के खिलाफ हमने अब भी अपनी चुप्पी नहीं तोडी और यदि आगे भी ऐसा ही चलता रहा तो आज नहीं तो कल जो कुछ भी शेष बचा है, वह सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाने वाला है। आज आम व्यक्ति को लगता है कि उसकी रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है! क्या इसका कारण ये नहीं है, कि आम व्यक्ति स्वयं ही अपने आप पर विश्वास खोता जा रहा है? ऐसे हालात में दो ही रास्ते हैं-या तो हम अत्याचारियों के जुल्म और मनमानी को सहते रहें या समाज के सभी अच्छे, सच्चे, देशभक्त, ईमानदार और न्यायप्रिय-सरकारी कर्मचारी, अफसर तथा आम लोग एकजुट होकर एक-दूसरे की ढाल बन जायें। क्योंकि लोकतन्त्र में समर्पित, संगठित एवं सच्चे लोगों की एकजुट ताकत के आगे झुकना सत्ता की मजबूरी है और सत्ता वो धुरी है, जिसके आगे सभी प्रशासनिक निकाय और बडे-बडे अफसर आदेश की मुद्रा में मौन खडे रहते हैं।

ताजमहल तो एक हिन्दू मंदिर था

for details pl click link

रुक सकता है 90 फीसदी भ्रष्टाचार!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
=================================

भ्रष्टाचार से केवल सीधे तौर पर आहत लोग ही परेशान हों ऐसा नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार वो सांप है जो उसे पालने वालों को भी नहीं पहचानता। भ्र्रष्टाचार रूपी काला नाग कब किसको डस ले, इसका कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता! भ्रष्टाचार हर एक व्यक्ति के जीवन के लिये खतरा है। अत: हर व्यक्ति को इसे आज नहीं तो कल रोकने के लिये आगे आना ही होगा, तो फिर इसकी शुरुआत आज ही क्यों न की जाये?

इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं कि यदि केन्द्र एवं राज्य सरकारें चाहें तो देश में व्याप्त 90 फीसदी भ्रष्टाचार स्वत: रुक सकता है! मैं फिर से दौहरा दूँ कि”हाँ यदि सरकारें चाहें तो देश में व्याप्त 90 फीसदी भ्रष्टाचार स्वत: रुक सकता है!”शेष 10 फीसदी भ्रष्टाचार के लिये दोषी लोगों को कठोर सजा के जरिये ठीक किया जा सकता है। इस प्रकार देश की सबसे बडी समस्याओं में से एक भ्रष्टाचार से निजात पायी जा सकती है।

मेरी उपरोक्त बात पढकर अनेक पाठकों को लगेगा कि यदि ऐसा होता तो भ्रष्टाचार कभी का रुक गया होता। इसलिये मैं फिर से जोर देकर कहना चाहता हूँ कि “हाँ यदि सरकारें चाहती तो अवश्य ही रुक गया होता, लेकिन असल समस्या यही है कि सरकारें चाहती ही नहीं!” सरकारें ऐसा चाहेंगी भी क्यों? विशेषकर तब, जबकि लोकतन्त्र के विकृत हो चुके भारतीय लोकतन्त्र के संसदीय स्वरूप में सरकारों के निर्माण की आधारशिला ही काले धन एवं भ्रष्टाचार से रखी जाती रही हैं। अर्थात् हम सभी जानते हैं कि सभी दलों द्वारा काले धन एवं भ्रष्टाचार के जरिये अर्जित धन से ही तो लोकतान्त्रिक चुनाव ल‹डे और जीते जाते हैं।

स्वयं मतदाता भी तो भ्रष्ट लोगों को वोट देने आगे रहता है, जिसका प्रमाण है-अनेक भ्रष्ट राजनेताओं के साथ-साथ अनेक पूर्व भ्रष्ट अफसरों को भी चुनावों में भारी बहुमत से जिताना, जबकि सभी जानते हैं की अधिकतर अफसर जीवनभर भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाते रहते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद ये ही अफसर हमारे जनप्रतिनिधि बनते जा रहे हैं।मैं ऐसे अनेक अफसरों के बारे में जानता हूँ जो 10 साल की नौकरी होते-होते एमपी-एमएलए बनने का ख्वाब देखना शुरू कर चुके हैं। साफ़ और सीधी सी बात है-कि ये चुनाव को जीतने लिये, शुरू से ही काला धन इकत्रित करना शुरू कर चुके हैं, जो भ्रष्टाचार के जरिये ही कमाया जा रहा है। फिर भी मतदाता इन्हें ही जितायेगा।

ऐसे हालत में सरकारें बिना किसी कारण के ये कैसे चाहेंगी कि भ्रष्टाचार रुके, विशेषकर तब; जबकि हम सभी जानते हैं कि भ्रष्टाचार, जो सभी राजनैतिक दलों की ऑक्सीजन है। यदि सरकारों द्वारा भ्रष्टाचार को ही समाप्त कर दिया गया तो इन राजनैतिक दलों का तो अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा! परिणाम सामने है : भ्रष्टाचार देशभर में हर क्षेत्र में बेलगाम दौ‹ड रहा है और केवल इतना ही नहीं, बल्कि हम में से अधिकतर लोग इस अंधी दौ‹ड में शामिल होने को बेताब हैं।

‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून” बनाया जावे।

अधिकतर लोगों के भ्रष्टाचार की दौ‹ड में शामिल होने की कोशिशों के बावजूद भी उन लोगों को निराश होने की जरूरत नहीं है, जो की भ्रष्टाचार के खिलाफ काम कर रहे हैं या जो भ्रष्टाचार को ठीक नहीं समझते हैं। क्योंकि आम जनता के दबाव में यदि सरकार ‘‘सूचना का अधिकार कानून” बना सकती है, जिसमें सरकार की 90 प्रतिशत से अधिक फाइलों को जनता देख सकती है, तो ‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून” बनाना क्यों असम्भव है? यद्यपि यह सही है कि ‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून” बन जाने मात्र से ही अपने आप किसी प्रकार का जादू तो नहीं हो जाने वाला है, लेकिन ये बात तय है कि यदि ये कानून बन गया तो भ्रष्टाचार को रुकना ही होगा।

‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून” बनवाने के लिए उन लोगों को आगे आना होगा जो-

भ्रष्टाचार से परेशान हैं, भ्रष्टाचार से पीड़ित हैं,

भ्रष्टाचार से दुखी हैं,

भ्रष्टाचार ने जिनका जीवन छीन लिया,

भ्रष्टाचार ने जिनके सपने छीन लिये और

जो इसके खिलाफ संघर्षरत हैं।

अनेक कथित बुद्धिजीवी, निराश एवं पलायनवादी लोगों का कहना है कि अब तो भ्रष्टाचार की गंगा में तो हर कोई हाथ धोना चाहता है। फिर कोई भ्रष्टाचार की क्यों खिलाफत करेगा? क्योंकि भ्रष्टाचार से तो सभी के वारे-न्यारे होते हैं। जबकि सच्चाई ये नहीं है, ये सिर्फ भ्रष्टाचार का एक छोटा सा पहलु है।

यदि सच्चाई जाननी है तो निम्न तथ्यों को ध्यान से पढकर सोचें, विचारें और फिर निर्णय लें, कि कितने लोग भ्रष्टाचार के पक्ष में हो सकते हैं?

अब मेरे सीधे सवाल उन लोगों से हैं जो भ्रष्ट हैं या भ्रष्टाचार के हिमायती हैं या जो भ्रष्टाचार की गंगा में डूबकी लगाने की बात करते हैं। क्या वे उस दिन के लिए सुरक्षा कवच बना सकते हैं, जिस दिन-

1. उनका कोई अपना बीमार हो और उसे केवल इसलिए नहीं बचाया जा सके, क्योंकि उसे दी जाने वाली दवाएँ कमीशन खाने वाले भ्रष्टाचारियों द्वारा निर्धारित मानदंडों पर खरी नहीं उतरने के बाद भी अप्रूव्ड करदी गयी थी?

2. उनका कोई अपना बस में यात्रा करे और मारा जाये और उस बस की इस कारण दुर्घटना हुई हो, क्योंकि बस में लगाये गए पुर्जे कमीशन खाने वाले भ्रष्टाचारियों द्वारा निर्धारित मानदंडों पर खरे नहीं उतरने के बावजूद अप्रूव्ड कर दिए थे?

3. उनका कोई अपना खाना खाने जाये और उनके ही जैसे भ्रष्टाचारियों द्वारा खाद्य वस्तुओं में की गयी मिलावट के चलते, तडप-तडप कर अपनी जान दे दे?

4. उनका कोई अपना किसी दुर्घटना या किसी गम्भीर बीमारी के चलते अस्पताल में भर्ती हो और डॉक्टर बिना रिश्वत लिये उपचार करने या ऑपरेशन करने से साफ इनकार कर दे या विलम्ब कर दे और पीड़ित व्यक्ति बचाया नहीं जा सके?

ऐसे और भी अनेक उदाहरण गिनाये जा सकते हैं।

यहाँ मेरा आशय केवल यह बतलाना है की भ्रष्टाचार से केवल सीधे तौर पर आहत लोग ही परेशान हों ऐसा नहीं है, बल्कि भ्रष्टाचार वो सांप है जो उसे पालने वालों को भी नहीं पहचानता। भ्र्रष्टाचार रूपी काला नाग कब किसको डस ले, इसका कोई भी अनुमान नहीं लगा सकता! भ्रष्टाचार हर एक व्यक्ति के जीवन के लिये खतरा है। अत: हर व्यक्ति को इसे आज नहीं तो कल रोकने के लिये आगे आना ही होगा, तो फिर इसकी शुरुआत आज ही क्यों न की जाये?

उपरोक्त विवरण पढकर यदि किसी को लगता है की भ्रष्टाचार पर रोक लगनी चाहिये तो ‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून” बनाने के लिये अपने-अपने क्षेत्र में, अपने-अपने तरीके से भारत सरकार पर दबाव बनायें। केन्द्र में सरकार किसी भी दल की हो,लोकतन्त्रान्तिक शासन व्यवस्था में एकजुट जनता की बाजिब मांग को नकारना किसी भी सरकार के लिये आसान नहीं है।

क्या है? ‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून”

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19.1.ग में प्रदत्त मूल अधिकार के तहत 1993 में शहीद-ए-आजम भगत सिंह की जयन्ती के दिन (26 एवं २7 सितम्बर की रात्री को) स्थापित एवं भारत सरकार की विधि अधीन दिल्ली से 6 अप्रेल, 1994 से पंजीबद्ध एवं अनुमोदित‘‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान” (बास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में लगातार अनेक राज्यों के अनेक क्षेत्रों व व्यवसायों से जुडे लोगों के साथ कार्य करते हुए और 20 वर्ष 9 माह 5 दिन तक भारत सरकार की सेवा करते हुए मैंने जो कुछ जाना और अनुभव किया है, उसके अनुसार देश से भ्रष्टाचार का सफाया करने के लिये ‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानून” बनाना जरूरी है,जिसके लिये केन्द्र सरकार को संसद के माध्यम से वर्तमान कानूनों में कुछ बदलाव करने होंगे एवं कुछ नए कानून बनवाने होंगे, जिनका विवरण निम्न प्रकार है :-

1-भ्रष्टाचार अजमानतीय अपराध हो और हर हाल में फैसला 6 माह में हो :सबसे पहले तो यह बात समझने की जरूरत है कि भ्रष्टाचार केवल मात्र सरकारी लोगों द्वारा किया जाने वाला कुकृत्य नहीं है, बल्कि इसमें अनेक गैर-सरकारी लोग भी लिप्त रहते हैं। अत: भ्रष्टाचार या भ्रष्ट आचरण की परिभाषा को बदलकर अधिक विस्तृत किये जाने की जरूरत है। इसके अलावा इसमें केवल रिश्वत या कमीशन के लेन-देन को भ्रष्टाचार नहीं माना जावे, बल्कि किसी के भी द्वारा किसी के भी साथ किया जाने वाला ऐसा व्यवहार जो शोषण, गैर-बराबरी, अन्याय, भेदभाव, जमाखोरी, मिलावट, कालाबाजारी, मापतोल में गडबडी करना, डराना, धर्मान्धता, सम्प्रदायिकता, धमकाना, रिश्वतखोरी, उत्पीडन, अत्याचार, सन्त्रास, जनहित को नुकसान पहुँचाना, अधिनस्थ, असहाय एवं कमजोर लोगों की परिस्थितियों का दुरुपयोग आदि कुकृत्य को एवं जो मानव-मानव में विभेद करते हों, मानव के विकास एवं सम्मान को नुकसान पहुंचाते हों और जो देश की लोकतान्त्रिक, संवैधानिक, कानूनी एवं शान्तिपूर्ण व्यवस्था को भ्रष्ट, नष्ट या प्रदूषित करते हों को ‘‘भ्रष्टाचार” या “भ्रष्ट आचरण” घोषित किया जावे।

इस प्रकार के भ्रष्ट आचरण को भारतीय दण्ड संहिता में अजमानतीय एवं संज्ञेय अपराध घोषित किया जावे। ऐसे अपराधों में लिप्त लोगों को पुलिस जाँच के तत्काल बाद जेल में डाला जावे एवं उनके मुकदमों का निर्णय होने तक, उन्हें किसी भी परिस्थिति में जमानत या अन्तरिम जमानत या पेरोल पर छोडने का प्रावधान नहीं होना चाहिये। इसके साथ-साथ यह कानून भी बनाया जावे कि हर हाल में ऐसे मुकदमें की जाँच 3 माह में और मुकदमें का फैसला 6 माह के अन्दर किया जावे। अन्यथा जाँच या विचारण में विलम्ब करने पर जाँच एजेंसी या जज के खिलाफ भी जिम्मेदारी का निर्धारण करके सख्त दण्डात्मक कार्यवाही होनी चाहिये।

…………..‘‘भ्रष्टाचार उन्मूलन कानूनकेशेष सुधार अगली किश्त में शीघ्र पढने को मिलेंगे….

पाठकों से निवेदन है कि खुलकर प्रतिक्रिया दें और बहस को आगे बढाने में सहयोग करें!

आपने पुलिस के लिये क्या किया है?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
===========================

मैं जहाँ कहीं भी लोगों के बीच जाता हूँ और भ्रष्टाचार, अत्याचार या किसी भी प्रकार की नाइंसाफी की बात करता हूँ, तो सबसे पहले सभी का एक ही सवाल होता है कि हमारे देश की पुलिस तो किसी की सुनती ही नहीं। पुलिस इतनी भ्रष्ट हो चुकी है कि अब तो पुलिस से किसी प्रकार के न्याय की या संरक्षण की आशा करना ही बेकार है। और भी बहुत सारी बातें कही जाती हैं।

मैं यह नहीं कहता कि लोगों की शिकायतें गलत हैं या गैर-बाजिब हैं! मेरा यह भी कहना नहीं है कि पुलिस भ्रष्ट नहीं है, लेकिन सवाल यह है कि हम में से जो लोग इस प्रकार की बातें करते हैं, वे कितने ईमानदार हैं? उनमें से ऐसे कितने हैं, जिन्होने कभी जून के महिने में चौराहे पर खडे यातायात हवलदार या सिवाही से पूछा हो कि भाई तबियत तो ठीक है ना, पानी पिया है या नहीं?

हम से कितने हैं, जिन्होंने कभी थाने में जाकर थाना प्रभारी को कहा हो कि मैं आप लोगों की क्या मदद कर सकता हूँ? आप कहेंगे कि पुलिस को हमारी मदद की क्या जरूरत है? पुलिसवाला भी एक इंसान ही है। जब हम समाज में जबरदस्त हुडदंग मचाते हैं, तो पुलिसवालों की लगातर कई-कई दिन की ड्यूटियाँ लगती हैं, उन्हें नहाने और कपडे बदलने तक की फुर्सत नहीं मिलती है। ऐसे में उनके परिवार के लोगों की जरूरतें कैसे पूरी हो रही होती हैं, कभी हम इस बात पर विचार करते हैं? ऐसे समय में हमारा यह दायित्व नहीं बनता है कि हम उनके परिवार को भी संभालें? उनके बच्चे को, अपने बच्चे के साथ-साथ स्कूल तक ले जाने और वापस घर तक छोडने की जिम्मेदारी निभाकर देखें?

यात्रा करते समय गर्मी के मौसम में चौराहे पर खडे पुलिसवाले को अपने पास उपलब्ध ठण्डे पानी में से गाडी रोककर पानी पिलाकर देखें? पुलिसवालों के आसपास जाकर पूछें कि उन्हें अपने गाँव, अपने माता-पिता के पास गये कितना समय हो गया है? पुलिस वालों से पूछें कि दंगों में या आतंक/नक्सल घटनाओं में लोगों की जान बचाते वक्त मारे गये पुलिसवालों के बच्चों के जीवन के लिये हम क्या कर सकते हैं? केवल पुलिस को हिकारत से देखने भर से कुछ नहीं हो सकता? हमेशा ही नकारत्मक सोच रखना ही दूसरों को नकारात्मक बनाता है।

हम तो किसी कानून का या नियम का या व्यवस्था का पालन नहीं करें और चाहें कि देश की पुलिस सारे कानूनों का पालन करे, लेकिन यदि हम कानून का उल्लंघन करते हुए भी पकडे जायें तो पुलिस हमें कुछ नहीं कहे? यह दौहरा चरित्र है, हमारा अपने आपके बारे में और अपने देश की पुलिस के बारे में।

कई वर्ष पहले की बात है, मुझे सूचना मिली कि मेरे एक परिचित का एक्सीडेण्ट हो गया है। मैं तेजी से गाडी चलाता हुआ जा रहा था, मुझे इतना तनाव हो गया था कि मैं सिग्नल भी नहीं देख पाया और लाल बत्ती में ही घुस गया। स्वाभाविक रूप से पुलिस वाले ने रोका, तब जाकर मेरी तन्द्रा टूटी।

मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ। मैंने पुलिसवाले के एक शब्द भी बोलने से पहले पर्स निकाला और कहा भाई जल्दी से बताओ कितने रुपये देने होंगे। पुलिसवाला आश्चर्यचकित होकर मुझे देखने लगा और बोला आप कौन हैं? मैंने अपना लाईसेंस दिखाया। उसने जानना चाहा कि “आप इतनी आसानी से जुर्माना क्यों भर रहे हैं।” मैंने कहा गलती की है तो जुर्माना तो भरना ही होगा।

अन्त में सारी बात जानने के बाद उन्होनें मुझसे जुर्माना तो लिया ही नहीं, साथ ही साथ कहा कि आप तनाव में हैं। अपनी गाडी यहीं रख दें और उन्होनें मेरे साथ अपने एक जवान को पुलिस की गाडी लेकर मेरे साथ अस्पताल तक भेजा। ताकि रास्ते में मेरे साथ कोई दुर्घटना नहीं हो जाये?

हमेशा याद रखें कि पुलिस की वर्दी में भी हम जैसे ही इंसान होते हैं, आप उनको सच्ची बात बतायें, उनमें रुचि लें और उनको अपने बीच का इंसान समझें। उन्हें स्नेह और सम्मान दें, फिर आप देखें कि आपके साथ कैसा बर्ताव किया जाता है। आगे से जब भी कोई पुलिस के बारे में नकारात्मक टिप्पणी करे तो आप उससे सीधा सवाल करें कि-“आपने पुलिस के लिये क्या किया है?”

दिवाली मनाने का औचित्य क्या है?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

===============

हमारे पूर्वजों द्वारा लम्बे समय से दिवाली के अवसर पर रोशनी हेतु दीपक जलाये जाते रहे हैं। एक समय वह था, जब दीपावली के दिन अमावस की रात्री के अन्धकार को चीरने के लिये लोगों के मन में इतनी श्रृद्धा थी कि अपने हाथों तैयार किये गये शुद्ध घी के दीपक जलाये जाते थे। समय बदला और साथ ही साथ श्रृद्धा घटी या गरीबी बढी कि लोगों ने घी के बजाय तेल के दिये जालाने की परम्परा शुरू कर दी।

समय ने विज्ञान के साथ करवट बदली माटी का दीपक और कुम्हार भाईयों का सदियों पुराना परम्परागत रोजगार एक झटके में छिन गया। दिवाली पर एक-दो सांकेतिक दीपक ही मिट्टी के रह गये और मोमबत्ती जलने लगी। अब तो मोमबत्ती की उमंग एवं चाह भी पिघल चुकी है। विद्युत की तरंगों के साथ दीपावली की रोशनी का उजास और अन्धकार को मिटाने का सपना भी निर्जीव हो गया लगता है।

दीपक जलाने से पूर्व हमारे लिये विचारणीय विषय कुछ तो होना चाहिये। आज के समय में मानवीय अन्धकार के साये के नीचे दबे और सशक्त लोगों के अत्याचार से दमित लोगों के जीवन में उजाला कितनी दूर है? क्या दिवाली की अमावस को ऐसे लोगों के घरों में उजाला होगा? क्या जरूरतमन्दों को न्याय मिलने की आशा की जा सकती है? क्या दवाई के अभाव में लोग मरेंगे नहीं? क्या बिना रिश्वत दिये अदालतों से न्याय मिलेगा? दर्द से कराहती प्रसूता को बिना विलम्ब डॉक्टर एवं नर्सों के द्वारा संभाला जायेगा? यदि यह सब नहीं हो सकता तो दिवाली मनाने या दीपक जलाने का औचित्य क्या है?

हमें उन दिशाओं में भी दृष्टिपात करना होगा, जिधर केवल और अन्धकार है! क्योंकि अव्यवस्था एवं कुछेक दुष्ट, बल्कि महादुष्ट एवं असंवेदनशील लोगों की नाइंसाफी का अन्धकार न केवल लोगों के वर्तमान एवं भविष्य को ही बर्बाद करता रहा है, बल्कि नाइंसाफी की चीत्कार नक्सलवाद को भी जन्म दे रही है। जिसकी जिनगारी हजारों लोगों के जीवन को लील चुकी है और जिसका भष्टि अमावश की रात्री की भांति केवल अन्धकारमय ही नजर आ रहा है। आज नाइंसाफी की चीत्कार नक्सलवाद के समक्ष ताकतवर राज्य व्यवस्था भी पंगु नजर आ रही है। आज देश के अनेक प्रान्तों में नक्सलवाद के कहर से कोई नहीं बच पा रहा है!

अन्धकार के विरुद्ध प्रकाश या नाइंसाफी के विरुद्ध इंसाफ के लिये घी, तेल, मोम या बिजली के दीपक या उजाले तो मात्र हमें प्रेरणा देने के संकेतभर हैं। सच्चा दीपक है, अपने अन्दर के अन्धकार को मिटाकर उजाला करना! जब तक हमारे अन्दर अज्ञानता या कुछेक लोगों के मोहपाश का अन्धकार छाया रहेगा, हम दूसरों के जीवन में उजाला कैसे बिखेर सकते हैं।

अत: बहुत जरूरी है कि हम अपने-आपको अन्धेरे की खाई से निकालें और उजाले से साक्षात्कार करें। अत: दिवाली के पावन और पवित्र माने जाने वाले त्यौहार पर हमें कम से कम समाज में व्याप्त अन्धकार को मिटाने के लिये नाइंसाफी के विरुद्ध जागरूकता का एक दीपक जलाना होगा, क्योंकि जब जागरूक इंसान करवट बदलता है तो पहा‹डों और समुद्रों से मार्ग बना लेता है। इसलिये इस बात को भी नहीं माना जा सकता कि मानवता के लिये कुछ असम्भव है। सब कुछ सम्भव है। जरूरत है, केवल सही मार्ग की, सही दिशा की और सही नेतृत्व की। आज हमारे देश में सही, सशक्त एवं अनुकरणीय नेतृत्व का सर्वाधिक अभाव है।

किसी भी राष्ट्रीय दल, संगठन या समूह के पास निर्विवाद एवं सर्वस्वीकार्य नेतृत्व नहीं है। सब काम चलाऊ व्यवस्था से संचालित है। पवित्रा के प्रतीक एवं धार्मिक कहे जाने वाले लोगों पर उंगलियाँ उठती रहती हैं। ऐसे में आमजन को अपने बीच से ही मार्ग तलाशना होगा। आमजन ही, आमजन की पीडा को समझकर समाधान की सम्भावनाओं पर विचार कर सकता है। अन्यथा हजारों सालों की भांति और आगे हजारों सालों तक अनेकानेक प्रकार के दीपक जलाते जायें, यह अन्धकार घटने के बजाय बढता ही जायेगा।

-लेखक (डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’) : जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविध विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषय के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान- (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें 05 नवम्बर, 2010 तक, 4542 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता राजस्थान के सभी जिलों एवं दिल्ली सहित देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे), मो. नं. 098285-02666.

बोलने की गलती नहीं करें, परिणाम घातक होंगे

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
=================

“कलेक्टर चाहे और प्रशासन काम नहीं करे, यह कैसे सम्भव है? या तो कलेक्टर, कलेक्टर के पद के योग्य नहीं रहे या फिर कर्मचारियों को कलेक्टरों का भय समाप्त हो गया? दोनों ही स्थितियाँ प्रशासन की भयावह एवं निष्क्रिय स्थिति की ओर संकेत करती हैं। राज्य के मुख्यमन्त्री के समक्ष कलेक्टर और कमिश्नर बेबशी व्यक्त करें, इससे बुरे प्रशासनिक हालात और क्या हो सकते हैं?”

पिछले दिनों राजस्थान के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने राज्य के जिला कलेक्टरों एवं कमिश्नरों की मीटिंग बुलाई और राज्य की शासन व्यवस्था के बारे में जानकारी लेने के साथ-साथ जरूरी दिशा निर्देश भी जारी किये। मुख्यमन्त्री का इरादा राज्य प्रशासन को आम लोगों के प्रति जिम्मेदार एवं संवेदनशील बनाने का था, परन्तु बैठक के दौरान कलेक्टरों की ओर से साफ शब्दों में कहा गया कि जनता का काम हो कैसे, जबकि निचले स्तर के कर्मचारी न तो कार्यालयों में समय पर उपस्थित होते हैं और न हीं जनता का काम करते हैं!

इतनी गम्भीर बात पर भी मुख्यमन्त्री की ओर से यह नहीं कहा गया कि ऐसे अनुशासनहीन एवं निकम्मे लोग सरकारी सेवा में क्यों हैं? बल्कि इस गम्भीर मामले पर मुख्यमन्त्री की चुप्पी विरोधियों की इस बात को बल प्रदान करती है कि अभी भी मुख्यमन्त्री के दिलोदिमांग में पिछली हार का भूत जिन्दा है। जिसमें यह प्रचारित किया गया था कि कर्मचारियों की नाराजगी के चलते भी गहलोत सरकार को हार का सामना करना पडा था।

राज्य की सत्ता की डोर काँग्रेस के अनुभवी माने जाने वाले राजनेता अशोक गहलोत के हाथ में है, जिनके पास वर्तमान में पूर्ण बहुत है। राज्य की जनता ने भाजपा की वसुन्धरा राजे सरकार के भ्रष्टाचार एवं मनमानी से मुक्ति दिलाने के लिये काँग्रेस को और अशोक गहलोत को राज्य की कमान सौंपी थी और साथ ही आशा भी की थी कि इस बार अशोक गहलोत प्रशासनिक भ्रष्टाचार एवं मनमानी पर अंकुश लगाने में सफल होंगे। जिससे जनता को सुकून मिलेगा। परन्तु कलेक्टरों की बैठकों में सामने आये राज्य के प्रशासनिक हालातों को देखकर तो यही लगता है कि सत्ता का भय प्रशासन में है ही नहीं। भय नहीं होना भी उतना बुरा भी नहीं है, लेकिन राज्य की सत्ता का सम्मान तो जरूरी है। छोटा सा कर्मचारी भी यह कहता सुना जा सकता है कि मुख्यमन्त्री को सत्ता में रहना है तो कर्मचारियों के खिलाफ बोलने की गलती नहीं करें, अन्यथा परिणाम घातक होंगे।

हम आम लोग अर्थात् सत्ता की चाबी के असली मालिक जिन्हें सरकारी कर्मचारी एवं अधिकारी कहते हैं, असल में वे सब जनता के नौकर होते हैं, जिन्हें संविधान में लोक सेवक कहा गया है। जनता की गाढी कमाई से संग्रहित राजस्व से वेतन पाते हैं। इन जनता के नौकरों से काम लेने के लिये जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है। जिनकी सरकार के जरिये शासन का संचालन होता है।

यदि लोकतन्त्र में भी जनता के नौकर जनता, जन प्रतिनिधि एवं जनता की सरकार को दांत दिखाने लगें तो फिर लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था को बद से बदतर होने से कैसे रोका जा सकता? मुख्यमन्त्री के साथ इस विषय में जनता को भी गम्भीरता पूर्वक सोच विचार करने की जरूरत है। अन्यथा प्रशासनिक मनमानी एवं निकम्मेपन के चलते जनता का शोषण एवं सत्ताधारी दल का पतन तय है।

-लेखक : जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र “प्रेसपालिका” के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविध विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषय के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें 31 अक्टूबर, 2010 तक, 4531 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे), Mob. : 098285-02666

अब रिपोर्टर्स नहीं, शार्प शूटर्स चाहिए : रमेश नैयर

दिनेश चौधरी/भड़ास4मीडिया
===================

रायपुर में नैयर साहब का मतलब सिर्फ रमेश नैयर होता है। कुलदीप नैयर जी में लगे नैयर नाम की समानता की वजह से यहां धोखे की कहीं कोई गुजांइश नहीं होती। रमेश नैयर साहब छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के स्कूल की तरह रहे हैं।
उनसे कलम चलाने की तमीज यहां के कितनों पत्रकारों ने हासिल की है, इसकी गिनती करना मुश्किल है। उनके स्कूल का एक नालायक विद्यार्थी मैं भी हूं जो बार-बार क्लास छोड़ कर भागता रहा। पर उनसे जुड़े हुए कछ वाकये हैं, जिनकी तफसील उनकी शख्सियत व कामकाज की शैली को बयान करने के लिये जरूरी हैं। मैं ‘अमृत संदेश’ छोड़ कर ‘भास्कर’ में आया था। ‘अमृत संदेश’ में हर वक्त कर्फ्यू जैसा लगा रहता था और लगता था कि किसी को भी हंसते-बोलते देख लिये जाने पर फौरन गोली मार दी जायेगी। नैयर साहब, जहां तक मुझे याद है, ‘दैनिक टिब्यून’, चंडीगढ से होकर रायपुर वापस आये थे। उनके नाम की बड़ी धाक थी, इसलिए थोड़ा डर स्वाभाविक था। पर उनकी कार्यशैली कभी बॉस जैसी नहीं रही। उल्टे हम लोगों के डर को भगाने के लिये वे रोचक किस्से सुनाते रहते।

एक किस्सा अब तक तक याद है।
आकाशवाणी के लिये कभी उन्होंने मायाराम सुरजन जी का इंटरव्यू लिया था। दूसरे दिन लोगों ने पूछा, ‘कैसा रहा?’ वे बोले, ”बहुत बढि़या, मैंने सिर्फ एक सवाल पूछा और पूरे समय सुरजन जी बोलते रहे। पैसे दोनों को बराबर मिले।”
ऐसे ही एक बार उन्होंने बताया कि किसी दिन टेलीप्रिंटर से रोल सही नहीं निकल रहा था। प्रिंट में खराबी थी। एजेंसी के दफ्तर में फोन लगाकर रोल भेजने की बात कही तो जवाब मिला कि कोई आदमी नहीं है। उन्हें जवाब दिया कि ”थोड़ी देर के लिये आप ही आदमी बन जायें।”
लेकिन हंसी-मजाक के इस माहौल में काम सीखने-सीखाने में कोई कोताही नहीं थी। एक-एक शब्द की शुद्धता की परख होती थी। एक बार ‘कार्रवाई’ व ‘काररवाई’ पर बड़ी लंबी बहस चली थी। फिल्ड-रिपोर्टिंग के लिये भेजने से पहले ही वे हमें आवश्यक दिशा-निर्देश देकर कार्य की जटिलता को आसान कर देते थे। एक बार बिलासपुर के पास जयराम नगर में जादू-टोने के फेर में एक साथ सात लड़कों ने आत्महत्या कर ली थी। संयोग की बात यह कि यह तत्कालीन शिक्षा मंत्री का इलाका था। यह एक बड़ी खबर थी लेकिन नैयर साहब को खरसिया जाना था जहां तत्कालीन मुखयमंत्री अर्जुन सिंह एक उपचुनाव में आकर फंस गये थे। उन्हें किसी सलाहकार ने बताया होगा कि आप खरसिया से चुनाव लड़ लें, आपके आने की भी जरूरत नहीं होगी और हम आपकी फोटो दिखाकर चुनाव जीत लेंगे। लेकिन यहां उनका सामना दिलीप सिंह जूदेव से हो गया और फोटो दिखाकर जीतने की बात तो दूर रही, अर्जुन सिंह को यहां अड्‌डा मारने के बाद भी एड़ी-चोटी एक करनी पड़ी। प्रदेश के बाहर से भी लोगों की निगाहें खरसिया पर टिकी हुई थीं। लिहाजा नैयर साहब ने मुझे एक और सहकर्मी के साथ जयराम नगर भेज दिया। कहा कि रिपोर्ट अच्छी हुई तो ‘रविवार’ में जायेगी अन्यथा इसे भास्कर भोपाल में भेजा जायेगा। तब रांची की तरह यहां भी सेठों के विवाद के कारण भास्कर की लॉंचिंग स्थगित थी। उन दिनों ‘रविवार’ में छपना एक बहुत बड़ा सपना था इसलिए रिपोर्ट तैयार करने में हमने अपनी पूरी सामर्थ्य झोंक दी थी।

रिपोर्ट तैयार की और नैयर साहब के कक्ष में पहुंचे। वे खरसिया की अपनी रिपोर्ट लिख रहे थे। सारा सरकारी अमला अर्जुन सिंह के पीछे लगा हुआ था। पैसे पानी की तरह बहाये जा रहे थे और इसके जवाब में जूदेव की ओर से उस समय का एक लोकप्रिय फिल्मी गाना जगह-जगह बज रहा था। नैयर साहब को गीत याद नहीं आ रहा था। उन्होंने मुझसे पूछा। फिल्मी गानों का मेरा ज्ञान शून्य था। नैयर साहब ने प्यार से डांटा कि ”फिल्में नहीं देखते, रिपोर्टिग क्या खाक करोगे?” इस बीच नवीन ने सिर खुजलाते हुए गाना याद किया। मुखड़ा था, ”हमरे बलमा बेईमान हमें पटियाने आये हैं, चांदी के जूते से हमें जूतियाने आये हैं।” नैयर साहब ने नोट किया और हमारी रिपोर्ट पर निगाह डाली। पहली ही नजर में एक गलती पकड़ी। मैंने लिखा था ‘वह कड़ाके की धूप में घर से बाहर निकला…’।’ नैयर साहब ने तुरंत सुधार किया और कहा कि ‘कड़ाके की ठंड होती है, धूप चिलचिलाती है।’ पूरी रिपोर्ट पढ़ी और कहा कि इसे भोपाल भेज देते हैं। मैं कलकत्ता भेजे जाने की उम्मीद कर रहा था। मैंने थोड़ी निराशा से पूछा कि रिपोर्ट में क्या खराबी है? नैयर साहब ने कहा कि ”कोई खराबी नहीं हैं, पर बेहतर बनाने की गुंजाइश तो होती है न?” नवोदित पत्रकारों को हतोत्साहित किये बगैर उनकी खामियों को बताने का यह उनका तरीका था।

कुल मिलाकर माहौल कुछ ऐसा था कि नैयर साहब को भी नहीं मालूम होगा -या उन्होंने नोट नहीं किया होगा – कि उनके कैबिन के मेज की दराज से कीमती सिगरेट कहां गायब हो जाती थीं? ‘संडे ऑब्जर्वर’ में नैयर साहब को सिगार पीते हुए देखा था पर भास्कर में उनका ब्रांड शायद ‘डनहिल’ या ऐसा ही कुछ था। कत्थे रंग की यह सिगरेट, मुझे अब तक याद है, मेरा एक साथी उनकी दराज से उड़ा लिया करता था और इस शरारत के पीछे एक अपनेपन का भाव होता था, अधिकार का भाव होता था और स्वंतत्रता-बोध का उद्‌घोष होता था कि ”देखो, यहां के राज में संपादक और ट्रेनी एक ही ब्रांड की सिगरेट पीते हैं।”

बहरहाल, युगधर्म, नवभारत, क्रानिकल, ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, संडे ऑब्जर्वर, समवेत शिखर, हितवाद आदि अनेक अखबारों में पत्रकारिता व संपादकी के बाद अब नैयर साहब अपना पूरा समय केवल लिखने में लगा रहे हैं। हालांकि स्वास्थ्य बहुत बेहतर न होने के कारण दिन में दो-तीन घंटे ही लिख पाते हैं। बीच में एक अरसा वे छत्तीसगढ ग्रंथ अकादमी में भी रहे। मैं ‘इप्टा’ के अपने मित्र मनोज के साथ उनके घर पहुंचा तो वे अकेले ही थे। लिहाजा चाय -वगैरह बनाने की जेहमत भी खुद उन्होंने ही उठायी। पूर्ववत्‌ स्नेह के साथ मिले। बिल्कुल अनौपचारिक माहौल में उनसे हुई बातचीत इस प्रकार है–

जिस दौर में आप पत्रकारिता में आये और आज के दौर में आप क्या फर्क महसूस कर रहे हैं? इसी में यह भी जोड़ना चाहूंगा कि पत्रकारिता आपका चुनाव था या संयोगवश इसमें आना हुआ?

–नहीं, मिल गया था इसलिए नहीं आये थे। बिल्कुल चुनकर आये थे। मैं भिलाई में लेक्चरर था और उससे आधी तनख्वाह पर यहां अखबार में आया था। जबकि आर्थिक-माली हालत घर की भी अच्छी नहीं थी, मेरी भी नहीं थी लेकिन ऐसा लगता था कि ये एक ऐसा माध्यम है जिससे हम अपनी बात कह सकते हैं। देश को, समाज को बदलने का, कुछ करने का जो एक जज्बा था, उसके लिए लगता था कि यह एक मंच बन सकता है, इसलिए आये। और इसमें असुरक्षा के बावजूद, सारे अभावों के बावजूद एक जज्बा बना रहा और लिखते रहे…. करते रहे। पत्रकार उस समय पढ़ते थे। जितनी भी बड़ी पत्रिकायें होती थीं, हिंदी की, अंग्रेजी की वे पढ़ी जाती थीं। मैं तो खैर, दिनमान से भी पहले आ गया था। धर्मयुग व हिंदुस्तान वगैरह थे, अंग्रेजी की पत्रिकायें थीं वे सब पढ़ी जाती थीं और कोई घटना होने पर वहां पहुंचा करते थे। जनजातीय क्षेत्रों में, आदिवासी इलाकों में, जन-आंदोलनों में, श्रमिक-आंदोलनों में हिस्सेदारी पत्रकार उस समय किया करते थे वो अपने आप में बड़ी स्फूर्तिदायक बात हुआ करती थी। कहीं भी दुर्घटना हुई और रात को दो बजे भी मालूम हुआ तो निकल पड़ते थे। साधन चाहे जो मिल जायें।

एक घटना मुझे अभी तक याद है। खोंगसरा के पास एक रेल दुर्घटना हुई थी। दो बजे रात को ही खबर मिली। उस समय बिलासपुर के संस्करण नहीं हुआ करते थे। तो अखबार के बंडलों की जो जीप जाती थी, उसी में सवार हो गये। वहां से थोड़ा पहले पता लगा कि खोंगसरा के लिये कौन-सा रास्ता मुड़ता है। फिर आगे चलकर जब रास्ता बंद हो गया तो मुझे याद है एक साथी रेल पटरी के ऊपर मोटर साइकिल दौड़ाकर ले गये और वहां तक पहुंचे … ये एक जज्बा होता था।

ऐसी ही एक घटना 25 मार्च 1966 की है। मैं उस समय नया-नया ही आया था युगधर्म में। पता चला बस्तर में गोली चली है और प्रवीण चंद्र भंजदेव को मार दिया गया है। उस समय बस्तर जाने के लिये आठ-नौ घंटे लगते थे। जो कुछ भी साधन मिल पाये उससे देर रात को ही हम लोग निकले और दोपहर बाद, बल्कि शाम को वहां तक पहुंच पाये। अखबार वालों को वहां जाने नहीं दे रहे थे, पत्रकारों के जाने की मनाही थी। कुछ परिचय के लोग किसी तरह बचते-बचाते ले गये और वो रिपोर्ट तैयार की।

तो उस समय की पत्रकारिता में मूल्य थे। अखबारों के मालिक तब भी थे और उनके प्रति आम श्रमजीवी पत्रकारों का गुस्सा होता था और आरोप होता था कि ये लोग शोषण करते हैं। लेकिन वो कम से कम कलम के धनी होते थे। पढ़ते थे और मूल्यांकन करते थे कि कोई अच्छी पत्रकारिता कर रहा है तो उसे खुद जाकर बुला लायें। सौदेबाजी पैसों की नहीं होती थी, लेकिन जहां लिखने की सुविधा अधिक हो, जहां आपकी बातों को काटा न जा रहा हो, उनका चुनाव होता था। मुझे अच्छी तरह से स्मरण है कि युगधर्म एक प्रकार की वैचारिक प्रतिबद्धता का अखबार था, राष्ट्रीय स्वयं संघ से जुड़ा था, लेकिन हमारी रिपोर्ट्‌स्‌ को कभी भी काटा-छांटा नहीं गया। इसी तरह क्रानिकल व नवभारत में भी हमने जो कुछ भी लिखा, वो छपता था। उस पर प्रतिक्रिया भी होती थी। एक छोटे से छोटे समाचार पर भी लोग पत्र के माध्यम से या दूसरे तरीकों से अपनी प्रतिक्रिया देते थे तो अपने आप में एक संतोष होता था। हालांकि आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती थी। कुछ बेचारे तो ऐसे भी होते थे जिन्हें क्लर्की नहीं मिली, या मास्टरी नहीं मिली तो प्रूफ रीडर में आ गये या अखबार में दूसरे कामों में लग गये और वे अर्थाभाव का रोना भी रोते थे। पर ज्यादातार लोग ऐसे होते थे जो प्रतिबद्धता के कारण या एक तरह की दीवानगी के कारण यहां आते थे और चूंकि वे खुद होकर इस व्यवसाय को चुनते थे इसलिए शिकवे-शिकायत की गुंजाइश बहुत कम होती थी।

हम लोगों के जमाने में भाषा के संस्कारों पर बड़ा जोर हुआ करता था। उस समय सिर्फ एक ही समाचार सेवा हुआ करती थी और वो प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया या पीटीआई थी। तो युगधर्म वालों को एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो अंग्रेजी से अनुवाद भी कर सके और जो समाचारों की भाषा को भी समझता हो। अब चूंकि मैंने अंग्रेजी में एम.ए. किया था व लिखता था इसलिए मुझे ऑफर दिया गया। लेकिन मैं जहां पर नौकरी में था वहां 300 के करीब मिलते थे और युगधर्म में मुझसे कहा गया कि 165 रूपये दिये जायेंगे। फिर भी मैं चला आया। हालांकि थोड़ी दुविधा भी थी और घर के लोगों से सलाह भी नहीं की। ये कहना पड़ेगा कि मेरे माता-पिता ने भी इसका प्रतिवाद नहीं किया कि क्यों इतनी अच्छी नौकरी छोड़ कर चले आये? तो अर्थाभावों के कारण संकट तो रहता था लेकिन सामाजिक प्रतिष्ठा बड़ी व्यापक थी। प्रशासन में व राजनीतिक गलियारों में भी पत्रकारों की पूछ-परख ज्यादा होती थी या पूछ-परख से बेहतर शब्द होगा कि धाक ज्यादा थी…..

* कह सकते है कि उनका रूतबा खूब हुआ करता था…..

–हां रूतबा भी कह सकते हैं जो कि अर्थाभाव के बावजूद हुआ करता था। इसके बाद मुझे चंडीगढ में दैनिक ट्रिब्यून में काम करने का मौका मिला जहां पत्रकारिता का बड़ा मूल्य था। बहुत मूल्यों वाली पत्रकारिता वहां हुआ करती थी। सबसे अच्छी बात यह कि समाचारों की निष्पक्षता व उनके सामाजिक -आर्थिक सरोकारों पर बड़ा जोर हुआ करता था। मैं जब दिनमान के लिये लिखा करता था.. पहले तो अज्ञेय जी थे तो उनके समय में मैं बहुत थोड़ा छपा था… फिर रघुवीर सहाय आये तो कोई रिपोर्ट जब हम भेजते थे तो वे उस समाचार से जुड़े सामाजिक-आर्थिक पहलुओं पर बड़ा जोर दिया करते थे। उनका कहना होता था कि समाचारों के संदर्भ में हमें राजनेताओं के इंटरव्यू नहीं चाहिये। घटना से जुड़े सामान्य व्यक्ति की बात – जो सत्य से ज्यादा निकट है-हमारे लिये ज्यादा महत्वपूर्ण है। ये भी देखिये कि समाचारों के भेजने के बाद क्या घटनाक्रम बनता है और उस संदर्भ में समाजशास्त्रियों के, अर्थशास्त्रियों के, घटना से जुड़े लोगों के, उनके परिजनों के व समाज के प्रबुद्ध लोगों के इंटरव्यू लीजिये और घटना के सामजिक-आर्थिक पक्ष को उजागर कीजिये। प्रशासन से भी बात होती थी।

उदाहरण के तौर जब बैलाडीला में गोली चली तो समाचार के भेजने के बाद भी हम कई दिनों तक जंगलों में घूमते रहे कि कहीं हडि्‌डयों के अवशेष तो नहीं पड़े हैं या कहीं राख दिखाई पड़ती थी तो जली हुई लाशों का शुबहा होता था। तो इसका असर ये होता था कि रिपोर्ट का प्रभाव बड़ा व्यापक होता था और संसद तक में उसकी गूंज होती थी। लोग प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे। पाठकों के पत्र आते थे। ये धीरे-धीरे कम होने लगा..

किस दौर में …

–1995-96 के आस-पास। इससे पहले 1990 में अखबारों में पूंजी के आने से स्पर्धा का सिलसिला शुरू हुआ। जब बाजार की ताकतें अखबारों में आने लगीं तब उनकी प्राथमिकतायें बदलने लगीं। उनका जोर अखबार में लगनी वाली मशीनों पर, मार्केटिंग के नेटवर्क पर ज्यादा होने लगा। पत्रकारिता में जो एक तरह की कशिश होती थी, या स्वयं पत्रकार को जो एक चिंता होती थी कि व्यक्ति के साथ, समाज के साथ कहीं कोई अन्याय हो रहा है तो उसका प्रतिकार किया जाना है, ये लगातार कम होता चला गया…..

सरोकारों की इस कमी के लिये भी पूंजी ही जिम्मेदार थी, या ऐसा पत्रकारों की ओर से ऐसा हुआ?

–शुरुआत पूंजी से ही हुई। अखबारों में बड़ी पूंजी के आने के बाद ये काम धीरे-धीरे हुआ। क्योंकि मैं जब तक अखबार में था – 2003 तक – तब तक ऐसा कोई वाकया नहीं हुआ कि मेरे लिखे को कभी काटा गया हो…

With Thanx: http://www.Bhadash4media.com

नुकसान पहुचा रही है पत्रकारिता

पत्रकारिता के नौ सूत्र बता रहे है हिमांशु शेखर

==============

हर देश की पत्रकारिता की अपनी अलग जरूरत होती है। उसी के मुताबिक वहां की पत्रकारिता का तेवर तय होता है और अपनी एक अलग परंपरा बनती है। इस दृष्टि से अगर देखा जाए तो भारत की पत्रकारिता और पश्चिमी देशों की पत्रकारिता में बुनियादी स्तर पर कई फर्क दिखते हैं। भारत को आजाद कराने में यहां की पत्रकारिता की अहम भूमिका रही है। जबकि ऐसा उदाहरण किसी पश्चिमी देश की पत्रकारिता में देखने को नहीं मिलता है। आजादी का मकसद सामने होने की वजह से यहां की पत्रकारिता में एक अलग तरह का तेवर विकसित हुआ। पर समय के साथ यहां की पत्रकारिता की प्राथमिकताएं बदल गईं और काफी भटकाव आया। पश्चिमी देशों की पत्रकारिता भी बदली लेकिन वहां जो बदलाव हुए उसमें बुनियादी स्तर पर भारत जैसा बदलाव नहीं आया।
इन बदलावों के बावजूद अभी भी हर देश की पत्रकारिता को एक तरह का नहीं कहा जा सकता है। पर इस बात पर दुनिया भर में आम सहमति दिखती है कि दुनिया भर में पत्रकारिता के क्षेत्र में गिरावट आई है। इस गिरावट को दूर करने के लिए हर जगह अपने-अपने यहां की जरूरत के हिसाब से रास्ते सुझाए जा रहे हैं। हालांकि, कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें हर जगह पत्रकारिता की कसौटी बनाया जा सकता है। ऐसे ही नौ बातों को अमेरिका की ‘कमेटी आॅफ कंसर्डं जर्नलिस्ट’ ने सामने रखा है।
बात को आगे बढ़ाने से पहले इस कमेटी के बारे में बुनियादी जानकारी जरूरी है। कंसर्डं के लिए हिंदी में चिंतित शब्द का प्रयोग होता है। इस लिहाज से कहा जाए तो कमेटी ऑफ़ कंसर्डं जर्नलिस्ट वैसे पत्रकारों, प्रकाशकों, मीडिया मालिकों और पत्रकारिता प्रशिक्षण से जुड़े लोगांे की समिति है जो पत्रकारिता के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। पत्रकारिता के भविष्य को सुरक्षित बनाए रखने के मकसद से यह समिति अपने तईं इस दिशा में प्रयासरत रहती है कि इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग पत्रकारिता को अन्य पेशों की तरह न समझें। बल्कि एक खास तरह की सामाजिक जिम्मेदारी को निबाहते हुए पत्रकार काम करें। इस समिति की नींव 1997 में रखी गई थी। उस दिन हावर्ड फैकल्टी क्लब में पचीस पत्रकार एकत्रित हुए थे। इसमें कुछ चोटी के संपादक थे तो कुछ रेडियो और टेलीविजन के जाने-माने चेहरे। इन पचीस लोगों में पत्रकारिता प्रशिक्षण से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण लोग और कुछ बड़े लेखक भी शामिल थे। वहां मौजूद सारे लोगों में एक समानता थी। सभी इस बात पर सहमत थे कि पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ गंभीर खामियां आ गई हैं। वे इस बात से भी डरे हुए थे कि पत्रकारिता जनता के हितों का पोषण करने के बजाए कहीं न कहीं जनहित को नुकसान पहंुचा रही है। सब इस बात पर भी सहमत थे कि ऐसी स्थिति में पत्रकारिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निबाहते हुए कुछ न कुछ किया जाना चाहिए।
इसी बात को ध्याम में रखकर ‘कमेटी ऑफ़ कंसर्डं जर्नलिस्ट’ का गठन किया गया। गठन के बाद इस समिति ने दो साल तक पत्रकारों और लोगों के बीच लगातार काम किया। समिति ने इक्कीस गोष्ठियों का आयोजन किया। इसमें तीन हजार से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। इसके अलावा इन गोष्ठियों में गंभीरता से काम कर रहे तीन सौ से ज्यादा पत्रकारों की भी भागीदारी रही। समिति ने विश्वविद्यालय के शोधार्थियों को भी अपने साथ जोड़ा। शोधार्थियों ने सौ से ज्यादा पत्रकारों से पत्रकारिता के मूल्यों पर आधारित लंबे साक्षात्कार किए। पत्रकारिता के सिद्धांतों पर आधारित दो सर्वेक्षण भी इस समिति ने किया। समिति ने उन पत्रकारों के पत्रकारिता जीवन का अध्ययन भी किया जिनसे समिति ने बातचीत की थी। इसके जरिए उन पत्रकारों की प्राथमिकता के बारे में जानकारी जुटाई गई जिनसे बातचीत करके समिति कुछ अहम नतीजे पर पहुंचने वाली थी। दो साल तक कठोर परिश्रम करने और समाज के अलग-अलग हिस्सों के लोगों के अनुभवों को सहेजने के बाद समिति ने एक किताब प्रकाशित की। इस किताब का नाम है- एलीमेंट ऑफ़ जर्नलिज्म। इस किताब को लिखा बिल कोवाच और टॉम रोसेंशियल ने। इसी किताब में समिति ने पत्रकारिता के बुनियादी तत्व के तौर पर नौ बातों को सामने रखा। जिसकी कसौटी पर दुनिया के हर देश की पत्रकारिता को कस कर देखने से कई बातें खुद ब खुद स्पष्ट होंगी।
समिति ने अपने अध्ययन और शोध के बाद इस बात को स्थापित किया है कि सत्य को सामने लाना पत्रकार का दायित्व है। कहा जा सकता है कि यह तो पत्रकारिता के पारंपरिक बुनियादी सिद्धांतों में शामिल रहा ही है। पर यहां सवाल उठता है कि इसका कितना पालन किया जा रहा है? इस कसौटी पर भारत की पत्रकारिता को कस कर देखा जाए तो हालात का अंदाजा सहज ही लग जाता है। अभी की पत्रकारिता में अपनी-अपनी सुविधा और स्वार्थ के हिसाब से खबरों को पेश किया जा रहा है। एक ही घटना को अलग-अलग तरह से प्रस्तुत किया जाना भी इस बात को प्रमाणित करता है कि सत्य को सामने लाने की प्राथमिकता से मुंह मोड़ा जा रहा है। ऐसा इसलिए भी लगता है कि घटना से जुड़े तथ्य तो एक ही रहते हैं लेकिन इसकी प्रस्तुति अपने-अपने संस्थान की जरूरतों और अपनी निजी हितों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। पिछले साल जामिया एनकाउंटर बहुत चर्चा में रहा था। इस एनकाउंटर की रिपोर्टिंग की बाबत आई एक रपट में यह बात उजागर हुई कि तथ्यों को लेकर भी अलग-अलग मीडिया संस्थान अपनी सुविधा के अनुसार रिपोर्टिंग करते हैं। जब एक ही घटना की रिपोर्टिंग कई तरह से होगी, वो भी अलग-अलग तथ्यों के साथ तो इस बात को तो समझा ही जा सकता है कि सच कहीं पीछे छूट जाएगा। दुर्भाग्य से ही सही लेकिन ऐसा हो रहा है।
समिति ने अपने अध्ययन और शोध के आधार पर दूसरी बात यह स्थापित की कि पत्रकार को सबसे पहले जनता के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। इस कसौटी पर देखा जाए तो अपने यहां की पत्रकारिता में भी जनता के प्रति निष्ठा का घोर अभाव दिखता है। अभी के दौर में एक पत्रकार को किसी मीडिया संस्थान में कदम रखते हुए यह समझाया जाता है कि आप किसी मिशन भावना के साथ काम नहीं कर सकते हैं और आप एक नौकरी कर रहे हैं। इसलिए स्वभाविक तौर पर आपकी जिम्मेदारी अपने नियोक्ता के प्रति है। इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि आपकी पगार मीडिया मालिक देते हैं इसलिए उनकी मर्जी के मुताबिक काम करना ही इस दौर की पत्रकारिता है। यहां इस बात को समझना आवश्यक है कि अगर मालिक की प्रतिबद्धता भी पत्रकारिता के प्रति है तब तो हालात सामान्य रहेंगे। पर आज इस बात को भी देखना होगा कि मीडिया में लगने वाले पैसे का चरित्र का किस तेजी के साथ बदला है। जब अपराधियों और नेताओं के पैसे से मीडिया घराने स्थापित होंगे तो स्वाभाविक तौर पर उनकी प्राथमिकताएं अलग होंगी। इसी के हिसाब से उन संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों की जवाबदेही तय होगी। इस दृष्टि से अगर देखा जाए तो हिंदुस्तान में मुख्यधारा की पत्रकारिता में गिने-चुने संस्थान ही ऐसे दिखते हैं कि जहां के पत्रकारों के लिए जनता के प्रति निष्ठावान होने की थोड़ी-बहुत संभावना है।
समिति के मुताबिक खबर तैयार करने के लिए मिलने वाली सूचनाओं की पुष्टि में अनुशासन को बनाए रखना पत्रकारिता का एक अहम तत्व है। इस आधार पर अगर देखा जाए तो पुष्टि की परंपरा ही गायब होती जा रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो बीते साल मुंबई में हुए हमले के मीडिया कवरेज के दौरान देखने को मिला। एक खबरिया चैनल ने खुद को आतंकवादी कहने वाले एक व्यक्ति से फोन पर हुई बातचीत का सीधा प्रसारण कर दिया। अब यहां सवाल यह उठता है कि क्या वह व्यक्ति सचमुच उस आतंकवादी संगठन से संबद्ध था या फिर वह मीडिया संगठन का इस्तेमाल कर रहा था। जिस समाचार संगठन ने उस साक्षात्कार ने उस इंटरव्यू को प्रसारित किया क्या उसने इस बात की पुष्टि की थी कि वह व्यक्ति मुंबई हमले के जिम्मेवार आतंकवादी संगठन से संबंध रखता है। निश्चित तौर ऐसा नहीं किया गया था। बजाहिर, यहां सूचना के स्रोत की पुष्टि में अपेक्षित अनुशासन की उपेक्षा की गई। ऐसे कई मामले भारतीय मीडिया में समय-समय पर देखे जा सकते हैं। हालांकि, आतंकवादी का इंटरव्यू प्रसारित करने के मामले में एक अहम सवाल तो यह भी है कि क्या किसी आतंकवादी को अपनी बात को प्रचारित और प्रसारित करने के लिए मीडिया का एक मजबूत मंच देना सही है? ज्यादातर लोग इस सवाल के जवाब में नकारात्मक जवाब ही देंगे।
समिति ने कहा है कि पत्रकारिता करने वालों को वैसे लोगों के प्रभाव से खुद को स्वतंत्र रखना चाहिए जिन्हें वे कवर करते हों। इस कसौटी पर भी अगर देखा जाए तो भारत की पत्रकारिता के समक्ष यह एक बड़ा संकट दिखता है। अपने निजी संबंधों के आधार पर खबर लिखने की कुप्रथा चल पड़ी है। कई ऐसे मामले उजागर हुए हैं जिसमें यह देखा गया है कि निहित स्वार्थ के लिए खबर लिखी गई हो। कई बार वैसी ही पत्रकारिता होती दिखती है जिस तरह की पत्रकारिता सूचना देने वाले चाहते हैं। राजनीति और अपराध की रिपोर्टिंग करते वक्त यह समस्या और भी बढ़ जाती है। राजनीति के मामले में नेता जो जानकारी देते हैं उसी को इस तरह से पेश किय जाता है जैसे असली खबर यही हो। नेता कब मीडिया का इस्तेमाल करने लगते हैं, इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं होता है। अपराध की रिपोर्टिंग करते वक्त जो जानकारी पुलिस देती है उसी के प्रभाव में आकर अपराध की पत्रकारिता होने लगती है। पुलिस अपने द्वारा की गई हत्या को एनकाउंटर बताती है और ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि मीडया उसे एनकाउंटर के तौर पर ही प्रस्तुत करती है।
समिति इस नतीजे पर भी पहुंची कि पत्रकारिता को सत्ता की स्वतंत्र निगरानी करने वाली व्यवस्था के तौर पर काम करना चाहिए। इस बिंदु पर सोचने के बाद यह पता चलता है कि जब पत्रकार सत्ता से नजदीकी बढ़ाने के लोभ का संवरण नहीं कर पाता है तो पत्रकारिता कहीं पीछे रह जाती है। भारत की पत्रकारिता के बारे में एक बार किसी बड़े विदेशी पत्रकार ने कहा था कि यहां जो भी अच्छे पत्रकार होते हैं उन्हें राज्य सभा भेजकर उनकी धार को कुंद कर दिया जाता है। राज्य सभा पहुंच कर अपनी पत्रकारिता की धार को कुंद करने वाले पत्रकारों के नाम याद करने में यहां की पत्रकारिता को जानने-समझने वालों को दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं देना पड़ेगा। ऐसे पत्रकार भी अक्सर मिल जाते हैं जो यह बताने में बेहद गर्व का अनुभव करते हैं कि उनके संबंध फलां नेता के साथ या फलां उद्योगपति के साथ बहुत अच्छे हैं। यही संबंध उन पत्रकारों से पत्रकारिता के बजाए जनसंपर्क का कार्य करवाने लगता है और उन्हें इस बात का पता भी नहीं चलता है। जब यह पता चलता है तब तक वे उसमें इतना सुख और सुविधाएं पाने लगते हैं कि उसे ये समय के नाम पर सही ठहराते हुए आगे बढ़ते जाते हैं।
समिति अपने अध्ययन के आधार पर इस नतीजे पर पहुंची है कि पत्रकारिता को जन आलोचना के लिए एक मंच मुहैया कराना चाहिए। इसकी व्याख्या इस तरह से की जा सकती है कि जिस मसले पर जनता के बीच प्रतिक्रया स्वभाविक तौर पर उत्पन्न हो उसके अभिव्यक्ति का जरिया पत्रकारिता को बनना चाहिए। लेकिन आज कल ऐसा हो नहीं रहा है। इसमें मीडिया घराने उन सभी बातों को प्रमुखता से उठाते हैं जिन्हें वे अपने व्यावसायिक हितों के पोषण के लिए उपयुक्त समझते हैं। उनके लिए जनता के स्वाभाविक मसले को उठाना समय और जगह की बरबादी करना है। ये सब होता है जनता की पसंद के नाम पर। जो भी परोसा जाता है उसके बारे में कहा जाता है कि लोग उसे पसंद करते हैं इसलिए वे उसे प्रकाशित या प्रसारित कर रहे हैं। जबकि विषयों के चयन में सही मायने में जनता की कोई भागीदारी होती ही नहीं है। इसलिए जनता जिस मसले पर व्यवस्था की आलोचना करनी चाहती है वह मसला मीडिया से दूर रह जाता है। इसका असर यह हो रहा है कि वैसे मसले ही मीडिया में प्रमुखता से छाए हुए दिखते हैं या उनकी मात्रा ज्यादा रहती है जो लोगों को रोजमर्रा के कामों में ही उलझाए रखे और उन्हें उस दायरे से बाहर सोचने का मौका ही नहीं दे।
समिति ने पत्रकारिता के अनिवार्य तत्व के तौर पर कहा है कि पत्रकार को इस दिशा में प्रयत्नशील रहना चाहिए कि खबर को सार्थक, रोचक और प्रासंगिक बनाया जा सके। इस आधार पर तो बस इतना ही कहा जा सकता है कि खबर को रोचक और प्रासंगिक बनाने की कोशिश तो यहां की पत्रकारिता में दिखती है लेकिन उसे सार्थक बनाने की दिशा में पहले करते हुए कम से कम मुख्यधारा के मीडिया घराने तो नहीं दिखते। सही मायने में जो संस्थान सार्थक पत्रकारिता कर रहे हैं, वे बड़े सीमित संसाधनों के साथ चलने वाले संस्थान हैं। उनके पास हर वक्त विज्ञापनों का टोटा रहता है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि अगर पत्रकारिता सार्थक होने लगेगी तो बाजार के लिए अपना हित साधना आसान नहीं रह जाएगा। इसलिए बडे़ मीडिया घराने विज्ञापन और संसाधन के मामले में अमीर होते हैं और सार्थकता के मामले में उनकी अमीरी नजर नहीं आती।
समिति के मुताबिक समाचार को विस्तृत और आनुपातिक होना चाहिए। इस नजरिए से देखा जाए तो इसी बात में खबरों के लिए आवश्यक संतुलन का तत्व भी शामिल है। विस्तार के मामले में अभी जो हालात हैं उन्हें देखते हुए यह तो कहा जा सकता है कि स्थिति बहुत अच्छी नहीं है लेकिन बहुत बुरी भी नहीं है। जहां तक संतुलन का सवाल है तो इस मामले में व्यापक सुधार की जरूरत दिखती है। संतुलन में अभाव की वजह से ही आज ज्यादातर मीडिया घरानों की एक पहचान बन गई है कि फलां मीडिया घराना तो फलां राजनीतिक विचारधारा के आधार पर ही लाइन लेगा। इसे शुभ संकेत तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन दुर्भाग्य से यह चलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है। इस मामले में पश्चिमी देशों की मीडिया में तो हालात और भी खराब हैं। अमेरिका में हाल ही हुए चुनाव में तो अखबारों ने तो बाकायदा खास उम्मीदवार का पक्ष घोषित तौर पर लिया।
आखिर में समिति ने पत्रकारिता के लिए एक अहम तत्व के तौर पर इस बात को शामिल किया है कि पत्रकारों को अपना विवेक इस्तेमाल करने की आजादी हर हाल में होनी ही चाहिए। इस कसौटी की बाबत तो बस इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि सही मायने में पत्रकारों के पास अपना विवेक इस्तेमाल करने की आजादी होती तो जिन समस्याओं की बात आज की जा रही है, उन पर बात करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

बेलगाम नौकरशाही को लूट की छूट!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश
==============================

सत्ता में आने के बाद कुछ माह तक मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने अपने निवास पर जनता दरबार लगाकर, जनता की शिकायतें सुनने का प्रयास किया था, जिनका हश्र जानकर कोई भी कह सकता है कि राज्य की नौकरशाही पूरी तरह से निरंकुश एवं सरकार के नियन्त्रण से बाहर हो चुकी है। प्राप्त शिकायतों पर मुख्यमन्त्री के विशेषाधिकारी (आईएएस अफसर) की ओर से कलक्टरों एवं अन्य उच्च अधिकारियों को चिठ्ठी लिखी गयी कि मुख्यमन्त्री चाहते हैं कि जनता की शिकायतों की जाँच करके सात/दस दिन में अवगत करवाया जावे। इन पत्रों का एक वर्ष तक भी न तो जवाब दिया गया है और न हीं किसी प्रकार की जाँच की गयी है। इसके विपरीत मुख्यमन्त्री से मिलकर फरियाद करने वाले लोगों को अफसरों द्वारा अपने कार्यालय में बुलाकर धमकाया भी जा रहा है। साफ शब्दों में कहा जाता है कि मुख्यमन्त्री ने क्या कर लिया? मुख्यमन्त्री को राज करना है तो अफसरशाही के खिलाफ बकवास बन्द करनी होगी। ऐसे हालात में राजस्थान की जनता की क्या दशा होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।

भाजपा की वसुन्धरा राजे सरकार को भ्रष्ट और भू-माफिया से साठगांठ रखने वाली सरकार घोषित करके जनता से विकलांग समर्थन हासिल करने वाली राजस्थान की काँग्रेस सरकार में भी इन दिनों भ्रष्टाचार चरम पर है। दो वर्ष से भी कम समय में जनता त्रस्त हो चुकी है। जनता साफ तौर पर कहने लगी है कि राज्य के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोग अभी तक अपनी पिछली हार के भय से उबर नहीं हो पाये हैं।

पिछली बार सत्ताच्युत होने के बाद अशोक गहलोत पर यह आरोप लगाया गया था कि कर्मचारियों एवं अधिकारियों के विरोध के चलते ही काँग्रेस सत्ता से बाहर हुई थी। हार भी इतनी भयावह थी कि दो सौ विधायकों की विधानसभा में 156 में से केवल 56 विधायक ही जीत सके थे।

अशोक गहालोत की हार पर अनेक राजनैतिक विश्लेषकों ने तो यहाँ तक लिखा था कि राजस्थान के इतिहास में पहली बार वसुन्धरा राजे के नेतृत्व में भाजपा को मिला पूर्ण बहुमत अशोक गहलोग के प्रति नकारात्मक मतदान का ही परिणाम था। इस डर से राजस्थान के वर्तमान मुख्यमन्त्री इतने भयभीत हैं कि राज्य की नौकरशाही के विरुद्ध किसी भी प्रकार की कठोर कार्यवाही नहीं की कर पा रहे हैं।

सत्ता में आने के बाद कुछ माह तक मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने अपने निवास पर जनता दरबार लगाकर, जनता की शिकायतें सुनने का प्रयास किया था, जिनका हश्र जानकर कोई भी कह सकता है कि राज्य की नौकरशाही पूरी तरह से निरंकुश एवं सरकार के नियन्त्रण से बाहर हो चुकी है।

प्राप्त शिकायतों पर मुख्यमन्त्री के विशेषाधिकारी (आईएएस अफसर) की ओर से कलक्टरों एवं अन्य उच्च अधिकारियों को चिठ्ठी लिखी गयी कि मुख्यमन्त्री चाहते हैं कि जनता की शिकायतों की जाँच करके सात/दस दिन में अवगत करवाया जावे। इन पत्रों का एक वर्ष तक भी न तो जवाब दिया गया है और न हीं किसी प्रकार की जाँच की गयी है। इसके विपरीत मुख्यमन्त्री से मिलकर फरियाद करने वाले लोगों को अफसरों द्वारा अपने कार्यालय में बुलाकर धमकाया भी जा रहा है। साफ शब्दों में कहा जाता है कि मुख्यमन्त्री ने क्या कर लिया? मुख्यमन्त्री को राज करना है तो अफसरशाही के खिलाफ बकवास बन्द करनी होगी। ऐसे हालात में राजस्थान की जनता की क्या दशा होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।

मनरेगा में काम करने वाली गरीब जनता को तीन महिने तक मजदूरी नहीं मिलती है। शिकायत करने पर कोई कार्यवाही नहीं होती है। सूचना अधिकार के तहत जानकारी मांगने पर जनता को लोक सूचना अधिकारी एवं प्रथम अपील अधिकारी द्वारा सूचना या जानकारी देना तो दूर कोई जवाब तक नहीं दिया जाता है। राज्य सूचना आयुक्त के पास दूसरी अपील पेश करने पर भी ऐसे अफसरों के विरुद्ध किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं होना आश्चर्यजनक है।

पुलिस थानों में खुलकर रिश्वतखोरी एवं मनमानी चल रही है। अपराधियों के होंसले बलुन्द हैं। अपराधियों में किसी प्रकार का भय नहीं है। सरेआम अपराध करके घूमते रहते हैं।

कहने को तो पिछली सरकार द्वारा खोली गयी शराब की दुकानों में से बहुत सारी बन्द की जा चुकी हैं, लेकिन जितनी बन्द की गयी हैं, उससे कई गुनी बिना लाईसेंस के अफसरों की मेहरबानी से धडल्ले से चल रही हैं।

राज्य में मिलावट का कारोबार जोरों पर है। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि राजस्थान से बाहर रहने वाले राजस्थानी शर्मसार होने लगे हैं। मसाले, घी, दूध, आटा, कोल्ड ड्रिंक, तेल, सीमण्ट सभी में लगातार मिलावटियों के मामले सामने आ रहे हैं। आश्चर्यजनक रूप से मिलावटियों को किसी प्रकार का डर नहीं है। नकली एवं एक्सपायर्ड दवाईयाँ भी खूब बिक रही हैं। मैडीकल व्यवसाय से जुडे लोग 80 प्रतिशत तक गैर-कानूनी दवाई व्यवसाय कर रहे हैं।

भाजपा राज में भू-माफिया के खिलाफ बढचढकर आवाज उठाने वाली काँग्रेस के वर्तमान नगरीय आवास मन्त्री ने जयपुर में नया जयपुर बनाकर आगरा रोड एवं दिल्ली रोड पर आम लोगों द्वारा वर्षों की मेहनत की कमाई से खरीदे गये गये भूखण्डों को एवं किसानों को अपनी जमीन को औने-पौने दाम पर बेचने को विवश कर दिया है। जयपुर विकास प्राधिकरण द्वारा 90 बी (भू-रूपान्तरण) पर तो पाबन्दी लगादी है, लेकिन भू-बेचान जारी रखने के लिये रजिस्ट्रिंयाँ चालू हैं। आवाप्ती की तलवार लटका दी गयी है। जिसका सीधा सा सन्देश है कि सरकार द्वारा कृषि भूमि को आवासीय भूमि में परिवर्तन नहीं किया जायेगा, लेकिन सस्ती दर पर भू-माफिया को खरीदने की पूरी आजादी है।

केवल इतना ही नहीं, बल्कि आगरा रोड एवं दिल्ली रोड पर प्रस्ताविक नये जयपुर के लिये घोषित क्षेत्र में निर्माण पर भी पाबन्दी लगादी गयी है और साथ ही यह भी सन्देश प्रचारित कर दिया गया है कि जिस किसी के प्लाट में मकान निर्माण हो चुका है, उसे अवाप्त नहीं किया जायेगा। इसके चलते इस क्षेत्र में हर माह कम से कम 500 नये मकानों की नींव रखी जा रही है। यह तब हो रहा है, जबकि नये मकानों के निर्माण की रोकथाम के लिये विशेष दस्ता नियुक्त किया गया है। यह दस्ता मकान निर्माण तो नहीं रोक पा रहा, लेकिन हर मकान निर्माता पचास हजार से एक लाख रुपये तक जयपुर विकास प्राधिकरण के इन अफसरों को भेट चढा कर आसानी से मकान निर्माण जरूर कर पा रहा है। जो कोई रिश्वत नहीं देता है, उसके मकान को ध्वस्त कर दिया जाता है।

क्या राजस्थान के आवासीय मन्त्री (जो राज्य के गृहमन्त्री भी हैं) और मुख्यमन्त्री इतने भोले और मासूम हैं कि उन्हें जयपुर विकास प्राधिकरण के अफसरों के इस गोरखधन्धे की कोई जानकारी ही नहीं है। सच्चाई तो यह है कि जनता द्वारा हर महिने इस बारे में सैकडों शिकायतें मुख्यमन्त्री एवं आवासीय मन्त्री को भेजी जाती हैं, जिन्हें उन्हीं भ्रष्ट अफसरों को जरूरी कार्यवाही के लिये अग्रेषित कर दिया जाता है, जिनके विरुद्ध शिकायत की गयी होती है। जहाँ पर क्या कार्यवाही हो सकती है, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि राज्य की नौकरशाही पूरी तरह से बेलगाम हो चुकी है और सरकार का या तो नौकरशाही पर नियन्त्रण नहीं है या पिछली बार काँग्रेस एवं अशोक गहलोत से नाराज हो चुकी नौकरशाही को खुश करने के लिये स्वयं सरकार ने ही खुली छूट दे रखी है कि बेशक जितना कमाया जावे, उतना कमा लो, लेकिन मेहरबानी करके नाराज नहीं हों। अब तो ऐसा लगने लगा है कि राज्य सरकार को जनता का खून पीने से कोई फर्क ही नहीं पडता।

कुछ लोग तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि राहुल गाँधी का वरदहस्त प्राप्त केन्द्रीय ग्रामीण विकास मन्त्री (जो राजस्थान में काँग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं) सी. पी जोशी के लगातार दबाव एवं राज्य सरकार के मामलो में दखलांजी के चलते अशोक गहलोत को इस कार्यकाल के बाद मुख्यमन्त्री बनने की कोई उम्मीद नहीं है, इसलिये वे किसी भी तरह से अपना कार्यकाल पूर्ण करना चाहते हैं। अगली बार काँग्रेस हारे तो खूब हारे उन्हें क्या फर्क पडने वाला है!

-लेखक होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविध विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषय के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें 13 सितम्बर, 2010 तक, 4463 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत

देश की सत्ता अब पत्रकारों के हाथों में सौंप देनी चाहिए : मनोज ब्लॉगर

मैं आज तक कभी भी ये समझ नही पाया कि एक पत्रकार का क्या काम है? पहले मुझे लगता था कि उनका काम तथ्यों को जनता के सामने रखना होता है। यदि कोई घटना/दुर्घटना हुई है तो वो उसके बारे में लोगों को बताता है। पर धीरे धीरे मुझे पता चला कि उनका काम महज किसी घटना के बारे में बताना ही नही बल्कि निष्कर्ष निकालना भी उन्ही का काम है।

यदि कोई murder हुआ है, तो ये बताना पत्रकार का काम है कि murder किसने किया है? किसी अदालत, पुलिस, गवाह की कोई जरूरत नही है। बाद में यदि वो व्यक्ति अदालत के द्वारा बरी कर दिया जाता है, फिर…… शायद अदालत ही दोषी है ……

कुछ और भी काम हैं पत्रकारों के, जैसे कि, ये ख्याल रखना कि संजय दत्त को जेल में खाने को क्या मिला ? सलमान खान से जेल में मिलने जब कैटरिना कैफ आयीं तो उन्होने क्या पहना था? पूछिये तो वही जबाब जो एकता कपूर देती हैं, वे लोग तो वही दिखा रहे हैं जो जनता देखना चाहती है,….. पर ये काम पहले किसी और ग्रुप का नही था?

हर इलेक्शन के पहले ये लोग एक game खेलते हैं, “EXIT POLL”…. हर साल इनका %error of margin करीब १० या २० के आसपास होता है और हर बार ये उसे मात भी दे देते हैं। फिर भी, ये इस प्रथा को साल दर साल ढोए जा रहे हैं… और आश्चर्य होता है कि उसे “SCIENTIFIC” करार देते हैं।

आजकल एक और नया काम खोजा है, पत्रकार भाइयों ने, दूसरी दुनिया के सचाइयों को हमारे समक्ष रखने का। ये बताते हैं कि आत्माओं से कैसे मिला जा सकता है? भूत और प्रेत में क्या अंतर है? चुडैल और प्रेत में कौन हमारा ज्यादा बड़ा दुश्मन/दोस्त है? और अब तो स्वर्ग का रास्ता भी दिखा रहे हैं….. धन्यवाद…..

पर इन सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण जिमेदारी जो इन लोगों ने अपने नाजुक कन्धों पर उठा रखी है, वो है, नैतिकता। ऐसा लगता है कि नैतिकता आज के जमाने में सिमट कर बस इन्हें के दामन में रह गयी है। तभी तो हर छोटी बड़ी बात पर ये लोग क्या मुख्यमंत्री और क्या प्रधानमंत्री सभी को नैतिकता की सिख दे बैठते हैं। क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, सब कुछ इन्हें पता होता है। मुझे तो लगता है देश की सत्ता अब इन्हीं लोगों के हाथों में सौंप देनी चाहिए और फिर यकीं मानिए हमारी सारी समस्या देखते देखते गायब हो जायेगी।
आपको नही लगता???

जैसा कि मनोज मनोज ने अपने ब्लॉग में लिखा
http://jaanebhido.blogspot.com/2007/11/blog-post_10.html

मै आपको मीडिया का काला चेहरा दिखाता हूँ : इफ्तिखार गिलानी

आवेश तिवारी
=======================

मैं नहीं जानता ,नीता शर्मा की पतित पत्रकारिता के अब तक कितने बेगुनाह शिकार हुए हैं ,लेकिन उनको वर्ष का सर्वश्रेष्ट रिपोर्टर घोषित किया जाना ये बताता है कि समकालीन पत्रकारिता में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा |अब जबकि मुझ पर लगे सारे आरोप निराधार साबित हो चुके हैं ,वो अपनी गैरजिम्मेदाराना रिपोर्टिंग को लेकर माफ़ी मांग सकती थी मगर उन्होंने नहीं माँगा ,हम जानते हैं आगे भी वो माफ़ी नहीं मांगेंगी |
मै इफ्तिखार गिलानी जो कि एक पत्रकार है आज देश की जनता और मीडिया को हिन्दुस्तानी पत्रकारिता का वो चेहरा दिखता हूँ ,जिनकी वजह से मुझे और मेरे परिवार को बेहिसाब शारीरिक और मानसिक यातनाएं मिली ,इन्होने मुझ बेगुनाह की जिंदगी को नरक बना दिया था ,मुझे मीडिया के इस चेहरे से नाराजगी नहीं अफ़सोस है और आगे भी रहेगा |
10-6-2002 वो मेरे मीडिया ट्रायल का पहला दिन था जब “दैनिक हिंदुस्तान ने खबर छापी “सैयद अली गिलानी के दामाद के घर आयकर छापों में बेहिसाब संपत्ति ,और संवेदनशील दस्तावेज बरामद” ,खुदा गवाह है मेरे घर में उस वक़्त केवल 3530 रूपए थे ,और जिन दस्तावेजों को संवेदनशील बताया गया वो इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध थे |

11-6-2002- हिंदुस्तान टाइम्स के विधि संवाददाता ने पूर्व में कोर्ट की कार्यवाही की इमानदारी से रिपोर्टिंग की थी ,लेकिन आज सुबह सब कुछ बदल चूका था ,पुलिस मुख्यालय में होने वाली नियमित ब्रीफिंग में एक अधिकारी ने नीता शर्मा को कुछ एक्सक्लूसिव देने का आफर दिया था ,वो हिंदुस्तान टाइम्स के पन्ने पर साफ़ नजर आ रहा था |खबर थी “iftikhar gilani admits isi link “,वहीँ “दैनिक हिंदुस्तान “ने शीर्षक दिया “महँगी गाड़ियों से आते थे इफ्तिखार से मिलने वाले |

“पायनियर “इफ्तिखार गिलानी जो सैयद अली गिलानी का दामाद भी है ,पाकिस्तान स्थित हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर इन चीफ सैयद सलाउदीन का का दाहिना हाँथ है .दिल्ली पुलिस ने अपनी जांच में पाया है कि इफ्तिखार सैयद सलाउदीन को हिन्दुस्तानी रक्षा एजेंसियों कि गतिविधियों के बारे में गुप्त जानकारी देता था और इसके लिए वो अपनी पत्रकारिता का इस्तेमाल करता था |सिर्फ इतना हे नहीं इफ्तिखार को दिल्ली में किसी विशेष मकसद को पूरा करने के लिए रखा गया था |प्रेस इन्फार्मेशन ब्यूरो “से मान्यता का लाभ इफ्तिखार प्रतिबंधित क्षेत्रों में जाने और रक्षा से जुड़े संस्थानों में जाने और वहां से सूचनाएँ निकालने के लिए करता था |उसने अभिव्यक्ति कि स्वतंत्र और पत्रकार होने का नाजायज फायदा उठाया |एजेंसियां अब इस दिशा में काम कर रही हैं कि अपनी मान्यता का लाभ उसने कहाँ कहाँ और कैसे लिया है |
“The statesman ‘गिरफ्तार पत्रकार गिलानी अकूत संपत्ति का मालिक है ,और इसका लन्दन स्थित स्टेंडर्ड चार्टर्ड बेंक में खाता है जिसमे अलग अलग माध्यों से बेहिसाब पैसे आते हैं |
दैनिक जागरण -ये अखबार मेरी गिरफ्तारी के बाद से ही पुलिस की जबान बोलता रहा ,में दैनिक जागरण में छापी ख़बरों से निकले सवालों का जवाब देते देते थक चुका था ,हद तो तब हो गयी जब उसने ये छापा कि “गिलानी के दामाद के लाकर से अरबों रूपए की विदेश मुद्रा मिली ”

12-6-2002- हिंदुस्तान टाइम्स की खबर का शीर्षक बदला हुआ था,उन्होंने मेरी पत्नी के हवाले से मेरे और आई एस आई के बीच कोई सम्बंध न होने की बात छपी ,अब शीर्षक था “iftikhar didn,t admits to isi link -wife”

13-6-2002 –
FRONTLINE -अजीब बात थी सभी अख़बारों में मेरे पास से लेपटॉप बरामद होने के सम्बंध में खबर छापी थी ,सच तो ये है कि मैंने आज तक अपनी जिंदगी में कभी भी लेपटाप का इस्तेमाल नहीं किया ,अफ़सोस जिम्मेदार कहे जाने वाली फ्रंटलाइन ने भी एक पूरी तरह से बेबुनियाद खबर छापी जिसमे मेरे पास लेपटॉप बरामद होने के साथ साथ इस बात का भी जिक्र था कि मै दो पाकिस्तानी अख़बारों “द नेशन “और “फ्राईडे टाइम्स” का रेजिडेंट एडिटर हूँ |

अगस्त 2002- इन अखबारों की सनसनीखेज और झूठी ख़बरों ने मेरी मुश्किलें बढा दी थी| मै इफ्तिखार गिलानी अपने देश की इलेक्ट्रानिक मीडिया के उस चेहरे को नहीं भूल पाता जो मुझे हर पल गुनाहगार साबित करने में लगा था |9 JUNE 2002 को जब मेरे घर पर छापा मारा गया उस वत दोपहर के २ बज रहे थे ,मुझे और मेरी पत्नी को एक कमरे में बंद कर दिया गया ,शाम सात बजे जब मुझे कमरे से निकला गया ,वहां मौजूद एक व्यक्ति ने टीवी आन कर दिया .मैं “आजतक “पर आतंकवादी घोषित किया जा चूका था |
मैंने देखा आजतक का संवाददाता मेरे घर के बाहर लगे नेम प्लेट के शाट लेकर मुझे फरार बता रहा था और मै खिडकियों की ओट में सुरक्षाकर्मियों से घिरा हुआ उसे साफ़ देख रहा था |
मै इफ्तिखार गिलानी कश्मीरी पत्रकारिता के पितामह रतन मोहन लाल के वो शब्द हर पल याद करता हूँ “आप अपनी कलम से दुनिया भर की बुराइयों को साफ़ नहीं कर सकते ,लेकिन कोशिश कर सकते हैं “|मै इफ्तिखार गिलानी अपनी शिकायत दर्ज कराता हूँ |

Link :

http://www.network6.in/2010/09/04/%E0%A4%AE%E0%A5%88-%E0%A4%87%E0%A4%AB%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%97%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80-%E0%A4%86%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%AE/

मीडिया की ‘कृपा’ से जटिल हुए भारत-चीन संबंध

अमित बरुआ
बीबीसी हिंदी सेवा प्रमुख
==========================
भारत और चीन के संबंध अभी उथल-पुथल के दौर में हैं और आगे इसकी रूप-रेखा क्या होगी ये अनिश्चित है. और ये बात यदि भारत के वरिष्ठ अधिकारी कह रहे हों – चाहे पर्दे के पीछे से ही सही – तो उस पर ध्यान देना ज़रूरी हो जाता है. इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि भारत-चीन सीमा पर पिछले 30 वर्षों में कोई गोली नहीं चली, गोला नहीं फूटा. साथ ही इस बात से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि दोनों देशों के बीच 2005 से ही रणनीतिक और सहयोगात्मक साझेदारी है – दोनों देशों के संबंधों पर जो आँच आनी थी वो आ चुकी है.

भारत सरकार के अधिकारियों ने बीबीसी को बताया,”मीडिया की कृपा से, भारत-चीन संबंध जटिल हो चुके हैं. अब आगे क्या होनेवाला है किसी को पता नहीं”.

तो भारतीय मीडिया में एक ‘कहानी’ चली और सरकार ने उसपर ये कहा कि उसकी इसपर निगाह है. और उधर चीन की निगाह इस बात से टेढ़ी हो जाती है कि भारत सरकार ऐसी ‘कहानियों’ का खंडन नहीं करती, बल्कि ये कहती है कि वह इस मुद्दे को देख रही है.

16 अक्तूबर को एक अख़बार में इस रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद कि चीन यार्लुंग ज़ांग्बो नदी पर एक बाँध बना रहा है एक भारतीय प्रवक्ता ने ये प्रतिक्रिया दी – “हम अख़बार की इस रिपोर्ट के बारे में पड़ताल कर रहे हैं कि हाल के समय में ऐसा कुछ तो नहीं हुआ जिससे पता चलता हो कि चीन ने हमसे जो कुछ कहा था उस स्थिति में कुछ बदलाव आ गया है…चीन सरकार ने (पूर्व में) इस बात का सरासर खंडन किया है कि वह ब्रह्मपुत्र नदी पर किसी बड़े पैमाने की परियोजना चलाने की तैयारी कर रहा है”.

भारतीय अधिकारी ऐसी ही रिपोर्टों और ऐसी ही प्रतिक्रियाओं का उदाहरण दे रहे हैं. वैसे कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई है. पाँच नवंबर को भारत के जल संसाधन मंत्री पवन बंसल ने कहा,”जिस जगह वे बाँध बना रहे हैं वो हमारी सीमा से 1100 किलोमीटर दूर है. ये एक छोटा बाँध है, कोई बड़ा जल कुंड नहीं. उनके पास पहले ही से ऐसे 15 बाँध हैं जिसका इस्तेमाल वे स्थानीय ज़रूरतों के लिए कर रहे हैं”.

पवन बंसल ने कहा कि भारत के लिए चिंता की बात तब होनी चाहिए जब पानी का रास्ता बदला जा रहा हो. उन्होंने कहा,”अभी तक नदी का मार्ग बदलने का ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है. अभी चिंता की कोई बात नहीं है मगर हमें हमेशा सतर्क रहना चाहिए”. मगर एक रिपोर्ट जब बाहर आ चुकी हो तो उसका खंडन होने में किसकी दिलचस्पी रहती है. शायद बहुत कम लोगों की.अधिकारी जानना चाहते हैं कि भारत किसी नदी पनबिजली परियोजना का विरोध कर भी सकता है तो कैसे क्योंकि भारत भी तो पाकिस्तान में जानेवाली चेनाब नदी पर बगलिहार बाँध बना रहा है.

सीमा विवाद

नाम ना बताने की शर्त पर अधिकारी ये भी कहते हैं कि चीन के साथ सीमा विवाद के मामले में कुछ भी बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है. भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं 30 अक्तूबर को दिल्ली में इसी तरह की बात कह चुके हैं कि सीमा विवाद के निपटारे को छोड़कर दोनों देश सीमा पर शांति बनाए रखने पर सहमत हुए हैं. सीमा विवाद के निपटारे की दिशा में बहुत कुछ नहीं हो सका है. भारत का राजनीतिक नेतृत्व इस विवाद को सुलझाने के लिए कई बार प्रयास कर चुके हैं मगर लगता है चीन की इसमें दिलचस्पी नहीं है

मनमोहन सिंह ज़ोर देकर कहते हैं – “अभी यही स्थिति है”. अधिकारियों का मत है कि सीमा विवाद पर विशेष प्रतिनिधियों के बीच 14 चक्रों में हुई बातचीत से कुछ नहीं निकल सका है. भारत का राजनीतिक नेतृत्व इस विवाद को सुलझाने के लिए कई बार प्रयास कर चुके हैं मगर लगता है चीन की इसमें दिलचस्पी नहीं है”. अब दलाई लामा के अरूणाचल प्रदेश का दौरा करने से भारत और चीन के बीच का सीमा विवाद एक बार फिर सतह पर आ गया है क्योंकि चीन अरूणाचल को अपना हिस्सा बताता है. पिछले कुछ महीनों में दोनों देशों के बीच बड़ी सावधानी से विकसित किया गए संबंध को मीडिया में आई रिपोर्टों से काफी़ धक्का लगा है और चीन सरकार को लगता है कि भारतीय नेताओं को बिल्कुल शुरू में ही इनका खंडन कर देना चाहिए था.

समझदारी

भारत में अभी समझदारी से बोलनेवाले लोग कम हैं और आर्थिक सफलता के खुमार में भारत का कुलीन तबका मानता है कि समय आ गया है जब चीन की परवाह करना बंद किया जाए. हालाँकि वे इस तथ्य की परवाह नहीं करते की चीन एक आर्थिक महाशक्ति है, और भारत नहीं. चीन पर पैनी नज़र रखनेवाले विश्लेषक नयन चंदा अख़बार टाइम्स ऑफ़ इंडिया में लिखते हैं,”चीन के साथ संबंधों को सैनिक ताक़त की कसौटी पर तौलना बहुत बड़ी भूल होगी. चीन से भारत को मिलनेवाली असल चुनौती इन देशों की ठंडी सीमा से आनेवाली चुनौती नहीं बल्कि इसके शहरों की चमक-दमक, उसके बुनियादी ढाँचे, उसके विकास करते उद्योग-धंधों, उसके अच्छे स्कूलों और उसकी उभरती स्वच्छ ऊर्जा तकनीक से मिलनेवाली चुनौती है….वहीं भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी चारों तरफ़ व्याप्त ग़रीबी, कुपोषण, असमानता और अन्याय के अलावा माओवादी हिंसा से भी घिरी है जो चीन का कतई मुक़ाबला नहीं कर सकती”.

वे आगे लिखते हैं,”इसका मतलब ये हुआ कि यदि कभी कोई सैनिक संघर्ष हुआ भी तो बहुत संभव है कि अंतरराष्ट्रीय तौर पर भारत अलग-थलग पड़ जाए. पैसे की अपनी ज़बान होती है और ऐसा लगता है कि अभी के समय में लोगों की पसंद मंदारिन है”. भारतीय अधिकारी द्विपक्षीय मुद्दों पर मीडिया की रिपोर्टिंग से मचे बवाल से बिल्कुल थक चुके हैं. असैनिक नौकरशाही जो अभी तक भारत-चीन समीकरणों पर ख़ामोशी अख़्तियार किए रहते रहे हैं, वे भारतीय मीडिया में चीन-विरोधी चर्चाओं से पार नहीं पा रहे.
ऐसे में भारत-चीन संबंध एक दिशाहीन क्षेत्र में प्रवेश कर गए हैं.

Pradesh Today Required Dgm Marketing in Bhopal, Indore, Jabalpur, Gwalior

PT Media Group Looking
SMART, YOUNG, RESULT ORIENTED
marketing professional
With Minimum 5 Years Experience in Print Media.
For his Hindi Monthly Magazine, Weekly Newsbook and Coming up Daily Hindi Newspaper
Pradesh Today
Salary: Best in Industries, No bar for right Candidate.

Jobs:Nokri

मीडिया को मजबूत करने की जिम्मेदारी भी समाज को ही उठानी होगी

विमल कुमार सिंह

============================
मीडिया और मनुष्य का नाता बहुत पुराना है। किन्तु, जिस मीडिया की हम चर्चा कर रहे हैं, उसका जन्म लगभग सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले उस समय हुआ जब द्योगिक क्रांति और उससे उत्पन्न नवीन सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं यूरोप में धीरे-धीरे सामने आ रही थीं।

अखबार के रूप में अवतरित इस मीडिया का आने वाले वर्षों में ऐसा महत्व बढ़ा कि उसे किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का आवश्यक अंग माना जाने लगा। उसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की संज्ञा दे दी गई। मीडिया के आकार-प्रकार में भी बढ़ोतरी हुई। जहां पहले अखबार कुछ सौ या कुछ हजार के दायरे में एक खास इलाके तक सीमित रहते थे, वहीं अब वे लाखों में और एक बड़े इलाके तक पहुंचने लगे। इसी दौरान रेडियो और टेलीविजन ने भी मीडिया के सशक्त और प्रभावी माध्यमों के रूप में अपनी जगह बना ली। आज मीडिया अपने विभिन्न स्वरूपों में एक ऐसी ताकत बन गई है जिसके पास लोकतांत्रिक व्यवस्था के विभिन्न सत्ता प्रतिष्ठानों को अंकुश में रखने की ताकत है।

पिछले कुछ दशकों में जहां मीडिया की ताकत बढ़ी है, वहीं मीडिया के भीतर पत्रकारों की ताकत घटी है। आज मीडिया की सफलता में पत्रकारिता से अधिक महत्व पूंजी और व्यावसायिक सूझ-बूझ को दिया जाता है। पूंजी और मुनाफे की इस दौड़ में वे लोग पीछे छूटते गए जो मीडिया को व्यवसाय कम, मिशन अधिक मानते थे। जबकि, वे लोग मीलों आगे निकल गए जिन्होंने मुनाफे को अपना मुख्य लक्ष्य बनाया। आज जितने भी बड़े मीडिया समूह हैं उनमें यही लोग हैं। समाज के लिए बाजारीकरण और केन्द्रीयकरण की प्रवृत्तियां हानिकारक हो सकती हैं। लेकिन, इनके लिए यह बड़े काम की चीज है क्योंकि, इससे इन्हें विज्ञापन रूपी अमृत की प्राप्ति होती है। समाज का हित इस वर्ग को तभी तक दिखाई देता है जब तक उसके मुनाफे पर असर न पड़ता हो। सत्ता पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अपना मुनाफा बढ़ाने में इसे कोई संकोच नहीं है। यह सत्ता पर अंकुश रख कर ही संतुष्ट नहीं है। इसे तो सत्ता में परोक्ष रूप से भागीदारी भी चाहिए। अपनी इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण इन बड़े मीडिया समूहों से किसी सार्थक सामाजिक बदलाव में मदद की उम्मीद करना बेमानी हो गया है।

बड़े मीडिया समूहों के इस दौर में छोटी और मझोली मीडिया कमजोर हुई है, पर खत्म नहीं। इस वर्ग की उपस्थिति दैनिक अखबार और इलेक्ट्रानिक चैनलों में तो नहीं है, पर साप्ताहिक/पाक्षिक/मासिक एवं त्रैमासिक पत्र-पत्रिकाओं में यह आज भी जीवित है। मीडिया के इस वर्ग को दो भागों में बांटा जा सकता है। पहले वर्ग में वे प्रकाशन हैं जो व्यक्तिगत स्वामित्व और व्यक्तिगत पूंजी के बल पर चल रहे हैं। दूसरे वर्ग में वे पत्र-पत्रिकाएं शामिल हैं जो संस्थाओं द्वारा समाज के पैसे और कार्यकर्ताओं के परिश्रम से निकलती हैं। इन्हें हम सही अर्थों में सामाजिक मीडिया कह सकते हैं। मुनाफे के लिए नहीं बल्कि समाज को सार्थक दिशा देने के लिए मीडिया का जो वर्ग तत्पर है, वह यही है। हालांकि इस तत्परता के बावजूद यह वर्ग प्रभावी नहीं है। कारण है पूंजी की कमी और बुनियादी सुविधाओं व पेशेवर क्षमताओं का भारी अभाव। इस सबके बावजूद यदि सार्थक सामाजिक बदलाव में मीडिया का इस्तेमाल करना है तो आशा की किरण यहीं है। इस वर्ग को मजबूत करने के अलावा और कोई चारा नहीं है।

समाज के लिए समर्पित इस मीडिया को मजबूत करने की जिम्मेदारी भी समाज को ही उठानी होगी। आज आवश्यकता एक ऐसे केन्द्रीय संस्थान की है जो समाज के सम्मिलित प्रयास से चल रही पत्र-पत्रिकाओं को उच्चस्तरीय प्रकाशन सामग्री उपलब्ध कराने के साथ ही आवश्यक विपणन एवं तकनीकी सहयोग भी दे। उनकी नीतियों में तालमेल बिठाए और उनके लिए वह सब कुछ करे जिससे वे सार्थक सामाजिक बदलाव के सशक्त माध्यम बन सकें। उनमें इतनी ताकत आ जाए कि वे धीरे-धीरे दैनिक अखबार, इलेक्ट्रानिक चैनल और रेडियो के क्षेत्र में भी मजबूती के साथ स्वयं को स्थापित कर सकें। अधिकतर लोगों के लिए ये बातें कपोलकल्पना हो सकती हैं। लेकिन, यदि सही लोग सही दिशा में काम करें तो यह सब संभव है। और जब ऐसा होगा तब पत्रकारिता का अर्थ बदल जाएगा। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने की बजाय लोकतंत्र की छत बन जाएगी, जिसकी छाया में समाज प्रगति की नित नई ऊंचाइयां छूएगा।

तो उनको क्या हक है बुद्धिजीवी कहलाने का

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
===================
इस देश में जाति के आधार पर जनगणना करने और नहीं करने पर काफी समय से बहस चल रही है। अनेक विद्वान लेखकों ने जाति के आधार पर जनगणना करवाने के अनेक फायदे गिनाये हैं। उनकी ओर से और भी फायदे गिनाये जा सकते हैं। दूसरी और ढेर सारे नुकसान भी गिनाने वाले विद्वान लेखकों की कमी नहीं है। जो जाति के आधार पर जनगणना चाहते हैं, उनके अपने तर्क हैं और जो नहीं चाहते हैं, उनके भी अपने तर्क हैं। कोई पूर्वाग्रह से सोचता है, तो कोई बिना पूवाग्रह के, लेकिन सभी अपने-अपने तरीके से सोचते हैं। लेकिन लोकतन्त्र में कोई भी व्यक्ति किसी पर भी दबाव के जरिये अपने विचारों को थोप नहीं सकता है।

>
इस सबके उपरान्त भी यदि भारत सरकार जाति आधारित जनगणना करवाने को राजी हो जाती है, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिये कि केवल जाति आधारित जनगणना की मांग करने वालों के तर्क ही अधिक मजबूत और न्याससंगत हैं और इसके विपरीत यदि सरकार जाति आधारित जनगणना करवाने को राजी नहीं होती है, तो भी इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिये कि जाति आधारित जनगणना की मांग का विरोध करने वालों के तर्क गलत या निरर्थक हैं!

>
हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में अपनाये गये, दलगत राजनीति पर अधारित संसदीय जनतन्त्र में सबसे पहले राजनैतिक दलों को किसी भी कीमत पर मतदाता को रिझाना जरूरी होता है। जिसके लिये 1984 में सिक्खों के इकतरफा कत्लेआम और गुजरात में हुए नरसंहार को दंगों का नाम दे दिया जाता है। वोटों की खातिर बाबरी मस्जिद को शहीद करके देश के धर्मनिरपेक्ष मस्तक पर सारे विश्व के सामने झुका दिया जाता है। मुसलमानों के वोटों की खातिर, मुसलमानों की औरतों के हित में शाहबानों प्रकरण के न्यायसंगत निर्णय को संसद की ताकत के बल पर बदल दिया जाता है और दूसरी ओर धर्मनिरपेक्षता की संरक्षक कहलाने वाली काँग्रेस की नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा को मौलवियों के विरोध के चलते भारत में वीजा देने में लगातार इनकार करती रही है?

>
हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को लेकर जन्मी जनसंघ के वर्तमान स्वरूप भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान संरक्षक लालकृष्ण आडवाणी, धर्म के आधार पर भारत विभाजन के खलनायक माने जाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर सजदा करके, पाकिस्तान की सरजमीं पर ही जिन्ना को धर्मनिरेपक्षता का प्रमाण-पत्र दे आते हैं। फिर भी भाजपा की असली कमान उन्हीं के हाथ में है।

>
इसके विपरीत भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवन्त सिंह को जिन्ना का समर्थन करने एवं सरदार वल्लभ भाई पटेल का विरोधी ठहराकर, सफाई का अवसर दिये बिना ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, लेकिन राजपूत वोटों में सेंध लगाने में सक्षम पूर्व राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के इन्तकाल के कुछ ही माह बाद, राजपूतों को अपनी ओर लुभाने की खातिर बिना शर्त जसवन्त सिंह की ससम्मान भाजपा में वापसी किस बात का प्रमाण है। नि:सन्देह जातिवादी राजनीति का ही पोषण है!

>
उपरोक्त के अलावा भी ढेरों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं। असल समझने वाली बात यह है कि इस देश की राजनीति की वास्तविकता क्या है? 5-6 वर्ष पूर्व मैं राजस्थान के एक पूर्व मुख्यमन्त्री के साथ कुछ विषयों पर अनौपचारिक चर्चा कर रहा था, कि इसी बीच राजनैतिक दलों के सिद्धान्तों का सवाल सामने आ गया तो उन्होनें बडे ही बेवाकी से टिप्पणी की, कि-“मुझे तो नहीं लगता कि इस देश में किसी पार्टी का कोई सिद्धान्त हैं? हाँ पहले साम्यवादियों के कुछ सिद्धान्त हुआ करते थे, लेकिन अब तो वे भी अवसरवादी हो गये हैं।”कुछ वर्षों के सत्ता से सन्यास के बाद जब इन्हीं महाशय को राज्यपाल बना दिया गया तो मैंने एक कार्यक्रम में उन्हें यह कहते हुए सुना कि-“इस देश में काँग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जो सिद्धान्तों की राजनीति करती है।”

>
भारतीय जनता पार्टी की एक प्रान्तीय सरकार में काबीना मन्त्री रहे एक मुसलमान नेता से चुनाव पूर्व जब यह सवाल किया गया कि आपने भाजपा, भाजपा की नीतियों से प्रभावित होकर जोइन की है या और कोई कारण है? इस पर उनका जवाब भी काबिले गौर है?”मेरे क्षेत्र में मसुलामनों का वोट बैंक है और कांग्रेस ने मुझे टिकिट नहीं देकर जाट जाति के व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाया है। चूँकि मुसलमान किसी को भी वोट दे सकता है, लेकिन जाट को नहीं देगा, ऐसे में मौके का लाभ उठाने में क्या बुराई है! जीत गये तो मुस्लिम कोटे में मन्त्री बनने के भी अवसर हैं।”आश्चर्यजनक रूप से ये महाशय चुनाव जीत गये और काबीना मन्त्री भी रहे, लेकिनएक बार इन्होंने अपने किसी परिचत के दबाव में अपने विभाग के एक तृतीय श्रेणी के कर्मचारी का स्थानान्तरण कर दिया, जिसे मुख्यमन्त्री ने ये कहते हुए स्टे (स्थगित) कर दिया कि आपको मन्त्री पद और लाल बत्ती की गाडी चाहिये या ट्रांसफर करने का अधिकार?

>
इसके बावजूद भी इस देश में लगातार प्रचार किया जा रहा है कि इस देश को धर्म एवं जाति से खतरा है! सोचने वाली बात ये है कि यदि कोई दल सत्ता में ही नहीं आयेगा तो वह सिद्धान्तों की पूजा करके क्या करेगा? हम सभी जानते हैं कि आज किसी भी दल के अन्दर कोई भी सिद्धान्त, कहीं भी परिलक्षित नहीं हो रहे हैं। ऐसे में किसी भी दल से यह अपेक्षा करना कि वह देशहित में अपने वोटबैंक की बलि चढा देगा, दिन में सपने देखने जैसा है।

>
इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि माहौल बनाने के लिये हर विषय पर स्वस्थ चर्चा-परिचर्चाएं होती रहनी चाहिये। बद्धिजीवियों को इससे खुराक मिलती रहती है, लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि जिस प्रकार से यहाँ के राजनेताओं की अपनी मजबूरियाँ हैं, उसी प्रकार से लेखकों एवं पाठकों की भी मजबूरियाँ हैं। जिसके चलते जब एक पक्ष सत्य पर आधारित चर्चा की शुरूआत ही नहीं करता है, तो असहमति प्रकट करने वाले पक्ष से इस बात की अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह केवल सत्य को ही चर्चा का आधार बनायेगा। हर कोई स्वयं के विचार को सर्वश्रेष्ठ और स्वयं को सबसे अधिक जानकार तथा अपने विचारों को ही मौलिक सिद्ध करने का प्रयास करने पर उतारू हो जाता है।

>
इस प्रकार की चर्चा एवं बहसों से हमारी बौद्धिक संस्कृति का ह्रास हो रहा है। जिसके लिये हम सब जिम्मेदार हैं। दु:ख तो इस बात का है कि इस पर लगाम, लगना कहीं दूर-दूर तक भी नजर नहीं आ रहा है। क्योंकि कोई भी अपनी गिरेबान में देखने को तैयार नहीं है। जाति के आधार पर जनगणना का विरोध करने वाले विद्वजन एक ही बात को बार-बार दौहराते हैं कि जातियों के आधार पर गणना करने से देश में टूटन हो सकती है, देश में वैमनस्यता को बढावा मिल सकता है। जबकि दूसरे पक्ष का कहना है कि इससे देश को कुछ नहीं होगा, लेकिन कमजोर और पिछडी जातियों की वास्तविक जनसंख्या का पता चल जायेगा और इससे उनके उत्थान के लिये योजनाएँ बनाने तथा बजट आवण्टन में सहूलियत होगी।

>
कुछ लोग इस राग का आलाप करते रहते हैं कि यदि जातियों के आधार पर जनगणना की गयी तो देश में जातिवाद को समाप्त नहीं किया जा सकता है। मेरी यह समझ में नहीं आ रहा कि हम जातियों को समाप्त कर कैसे सकते हैं? कम से कम मुझे तो आज तक कोई सर्वमान्य एवं व्यावहारिक ऐसा फार्मूला कहीं पढने या सुनने को नहीं मिला, जिसके आधार पर इस देश में जातियों को समाप्त करने की कोई आशा नजर आती हो?

>
सच्चाई तो यही है कि इस देश की सत्तर प्रतिशत से अधिक आबादी को तो अपनी रोजी-रोटी जुटाने से ही फुर्सत नहीं है। उच्च वर्ग को इस बात से कोई मतलब नहीं कि देश किस दिशा में जा रहा है या नहीं जा रहा है? उनको हर पार्टी एवं दल के राजनेताओं को और नौकरशाही को खरीदना आता है। देश का मध्यम वर्ग आपसी काटछांट एवं आलोचना करने में समय गुजारता रहता है।

>
बुद्धिजीवी वर्ग अन्याय एवं अव्यवस्था के विरुद्ध चुप नहीं बैठ सकता। क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग को चुप नहीं रहने की बीमारी है। राजनेता बडे चतुर और चालाक होते हैं। अत: उन्होंने बुद्धिजीवी वर्ग को उलझाये रखने के लिये देश में जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषा, मन्दिर-मस्जिद, गुजरात, नक्सलवाद, आतंकवाद, बांग्लादेशी नागरिक, कश्मीर जैसे मुद्दे जिन्दा रखे हुए हैं। बुद्धिजीवी इन सब विषयों पर गर्मागरम बहस और चर्चा-परिचर्चा करते रहते हैं। जिसके चलते अनेकानेक पत्र-पत्रिकाएँ एवं समाचार चैनल धडल्ले से अपना व्यापार बढा रहे हैं।
उक्त विवेचन के प्रकाश में उन सभी बद्धिजीवियों से एक सवाल है, जो स्वयं को बुद्धिजीवी वर्ग का हिस्सा मानते हैं, यदि वे वास्तव में इस प्रकार से आपस में उलझकर वाद-विवाद करने में उलझे रहेंगे तो उनको बुद्धिजीवी कहलाने का क्या हक है? ऐसे बुद्धिजीवियों को अपनी उपयोगिता के बारे में विचार करना चाहिये!

मीडिया में भी आयी है आश्चर्यजनक रफ्तार

आज संचार माध्यम की तेजी के साथ-साथ मीडियाँ में भी आश्चर्यजनक
रफ्तार आयी है, किसी भी अहम खबर को दुनियाँ भर में मिंनटों में
पहुँचने में देर नहीं लगती है। नतीजे में जनता बेहद जागरूक हो गई है।
लेकिन ख़बरों की इस भाग-दौड़ में देश और समाज की असल “समस्यायें
और उसके हल” की ओर जनता का ध्यान केंन्दित करने में अधिकतर मीडिया सफल
नहीं हो पायी है, और न ही देशवासियों में देशहित में कुछ करने का ज़ज्बा
पैदा करने में विशेष योगदान दे पायी है। क्योकि उनके सामने विज्ञापन लेने और
टीआरपी बढ़ाने की होड़ है, इसलिए यही वो लिखते और दिखाते है, जिससे लोग
वाह वाह करें। कोई हर्ज़ नहीं है, लेकिन कुछ ऐसा भी कीजियें जिससे आत्मिक संतोष भी मिले।

जबकि हक़ीकत है कि देश के सामने विकराल समस्याये जैसे भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, बेरोजगारी,
महँगाई, छुआछूत, गरीबी, भेदभाव, अदालतों के फैसलों में देरी, जातवाद, क्षेत्रीयता,
भाषावाद व कश्मीर, पड़ोसी देशो से संबंध विदेशनीति आदि जैसे अनगिनत समस्याये है,
जिसपर भी मीड़ियाँ को खास ध्यान देना चाहियें और चटकारे या वक्त गुजारने
के लिए ख़बरो को ज़रिया बनने देने के बजाय, देश व समाज को दिशा निर्देश
की जिम्मेदारी आज के सबसे मजबूत स्तंभ मीडियाँ को भी समझनी चाहिये।
अगरचे ये भी सही है कि जो कुछ भी अच्छा देखने या सुनने को मिल रहा है उसमें
मीडिया का बहुत योगदान है वरना हमारे नेताओं ने तो जैसे देश को बर्बाद करने की
कसम खा रखी हो। अगर सही मानों में आप इन समस्यायों का विष्लेषण करने बैठेगें तो
ये बात आइने की तरह से साफ हो जायेगी कि देश को बनाने और बिगाड़ने में इन
नेताओं का कितना हाथ हैं। साथ ही इस बात से इंकार नहीं कि नेताओं की किस्मों
और योगदान में भी अपवाद स्वरूप महान हस्तियां भी मिल जायेगी। साथ ही मीडिया और राजनीति
जो लोग अच्छे है, उनका हमें हार्दिक स्वागत करना चाहियें।

आज देश हिन्दू-मुस्लिम और समझदार लोगों में बट गया है, मीडिया भी
किसी हद तक इस बटवारे की शिकार है। नतीजे में जहर फैल रहा है, जो देशहित
में किसी भी तरह नहीं है। हम नेताओं के चक्कर में पड़कर उनके हितो को साधने
के लिए देश को तरह-तरह के खानों में बाँट रहे है। क्या ही अच्छा होता कि हम
सब मिलकर देश को आगे बढ़ाने के उपायों के बारे में सोचते। ऐसी मिसाल कायम
करते की दुनियां हमारा अनुसरण करती, जैसे की आज दुनियां के जापान,चीन,
अमेरिका, यहां तक की इज़राइल जैसे जो हमसे हर मामले में बहुत छोटा देश है लेकिन अधिकतर मामलों
में देखते-देखते कितना आगे बढ़ गया है। आइयें हम सब देश और समाज को बेहतर बनाने
का फैसला ले ताकि आत्मिक संतोष मिल सके और देश व समाज के प्रति हमारी जो जिम्मेदारी
है उसमें कुछ योगदान कर सके।

एस.एम.मतलूब
मुख्य संपादक- आपकी आवाज़,कांम

कितनी अहम है मीडिया की भूमिका

भारतीय मीडिया में आजकल मीडिया की भूमिका भी चर्चा का एक विषय है.

वह चाहे प्रियदर्शिनी मट्टू की हत्या का मामला हो या स्टिंग ऑपरेशन के टेपों को बेचे जाने का, दोनों के ही सुर्ख़ियों में आने का कारण कहीं न कहीं मीडिया है.

मीडिया की ताक़त का एक अनुभव तो मुझे भी हो चुका है जो मैं आपसे बाँटना चाहती हूँ.

भारत में लाखों की संख्या में ऐसे मामले हैं जिनमें सुनवाई तो दूर मुक़दमे तक दर्ज नहीं हुए हैं.

अपनी रेडियो श्रंखला ‘इंसाफ़’ की रिकॉर्डिंग के दौरान मुझे कई ऐसे लोगों से मिलने का मौक़ा मिला जिनके जूते अदालत के चक्कर लगा-लगा कर घिस चुके हैं.

‘इंसाफ़’ श्रंखला की एक कड़ी था आज़मगढ़ में जीवित लोगों को मृतक मान लिए जाने का मामला.

ठहरिए, समझाती हूँ. आज़मगढ़ के कई लोग ऐसे हैं जो रोज़ी-रोटी की तलाश में विदेश गए और उनके रिश्तेदारों ने तहसील के रिकॉर्डों में उन्हें मरा हुआ दिखा कर उनकी संपत्ति हथिया ली.

ये लोग जब लौट कर आए तो यह प्रमाण जुटाने में ही उनके कई वर्ष लग गए कि वे मरे नहीं ज़िंदा हैं.

इस मामले की जब कहीं सुनवाई नहीं हुई तो उन्होंने एक मृतक संघ की स्थापना करली और अपने नाम के आगे मृतक लगाने लगे.

इस संगठन के अध्यक्ष लालबिहारी मृतक की व्यथा सुन कर मैंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से संपर्क साधा और फिर यह ख़बर कुछ अख़बारों में छपी.

बाद में यह जान कर अच्छा लगा कि उन प्रकाशित रिपोर्टों के आधार पर राज्य सरकार हरकत में आई और उसने यह मामला अपने हाथ में ले लिया.

इसी तरह का एक मामला है राजस्थान के हबीब मियाँ का जिनकी हज की ख़्वाहिश के बारे में बीबीसी में पढ़ कर अनगिनत पाठक सामने आए और उनका यह अरमान पूरा करने का बीड़ा उठाया.

यहाँ यह सब लिखने का उद्देश्य यह है कि मीडिया में वाक़ई ताक़त है. वह सोते हुओं को जगाने की क्षमता रखता है.

मीडिया चाहे तो समाज के चौथे स्तंभ की ज़ि्म्मेदारी बख़ूबी निभा सकता है और चाहे परोक्ष रूप से ही हो, न्याय दिलाने की दिशा में अपना योगदान दे सकता है.

सलमा ज़ैदी
संपादक, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम
(ईमेल भेजने के लिए पता हैः hindi.letters@bbc.co.uk)

मीडिया बन गया है कलेक्टर, लीडर और इंस्पेक्टर के इर्द-गिर्द घूमता हुआ व्यापार

“संकट व्यक्ति का नहीं पत्रकारिता की साख का है। अब इसे बचाने लिए सरकार के दरबार में खटखटाना होगा। कानून से जितना हो सके वह ठीक है, वरना सड़क पर भी उतरना होगा। पत्रकारिता बचेगी तो लोकतंत्र बचेगा वरना लोकतंत्र नहीं बचेगा तो पत्रकारिता भी नहीं बचेगी।”
उपरोक्त झकझोर देने वालें है. लेकिन यहाँ तो लोगों की संवेदनाएं हीं समाप्त हो चुकी हैं. कुछ ही दिनों पूर्व मैंने एक आलेख लिखा था, कृपया देखें :

मानवता की कराह : मीडिया की जुबानी सुनाई दे!

हमारा देश अंग्रेजों की गुलामी से 1947 में आजाद हुआ था। आजादी के साथ-साथ हमने विभाजन के अभी रिस रहे घाव देखे थे। करोडों भोले भाले लोगों को लग रहा था कि आजादी के बाद इस देश में चमत्कार हो जायेगा। उनको कष्टों से मुक्ति मिल जायेगी। उनके स्वाभिमान एवं सम्पत्ति की रक्षा सुनिश्चित होगी। आम जनता के सामने जो सवाल 1947 में थे, वही के वहीं सवाल आज भी हमारे सामने सीना ताने खडे थे। बल्कि अधिक तीखे सवालों में तब्दील हो गये हैं।

ऐसा नहीं है कि देश आगे नहीं बढा है, लेकिन विकास किस कीमत पर और किन-किन लोगों के लिये हुआ है, यह अपने आप में विचारणीय सवाल है? दुनिया के सामने हम ललकारते हुए कहते सुने जा सकते हैं कि हमने अनेक क्षेत्रों में क्रान्तिकारी प्रगति की है। मात्र आधी सदी में शहरों से चलकर, हमारों गांवों और ढाणियों में भी टीवी और इंटरनेट की पहुँच गये हैं। लेकिन समाज की समस्याएं आज भी वही की वहीं हैं। अपराध एवं अपराधियों में कोई कमी नहीं आयी है। विभेदकारी मानसिकता में कमी नहीं हुई है।

राजनीतिज्ञों का रंग तो इतना बदरंग हो चुका है कि राजनेताओं की पूरी की पूरी कौम ही गिरगिट नजर आने लगी है। शोषित अधिक शोषित हुआ है और शोषक ताकतवर होता जा रहा है। दोनों को एक दूसरे का पता है कि कौन शोषक है और कौन शोक्षित, लेकिन विशेषकर शोषित वर्ग 1947 से पहले भांति बल्कि आज तो पहले से भी अधिक भयभीत और सहमा हुआ है। समाज में व्याप्त आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि विसमता एवं विरोधाभासों में कोई मौलिक बदला या परिवर्तन नहीं आया है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि इस देश में लोकतन्त्र या जनता के शासन का क्या अभिप्राय है?

लोगों को कार्यपालिका एवं व्यवस्थापालिका ने निराश किया है, न्यायपालिका ने अपनी भूमिका काफी हद तक, काफी समय तकअच्छी तरह से निभाई है, लेकिन सरकार के वास्तविक संचालक अफसरों ने जानबूझकर न्यायपालिका पर इतना गैर-जरूरी भार लाद दिया है कि चाहकर भी न्यायपालिका कुछ नहीं कर सकती। इसके अलावा न्यायपालिका भी भ्रष्टाचार में गौता खाने लगी है। अपराधों एवं जनसंख्य में हो रही बेतहासा वृद्धि के अनुपात में जजों की संख्या बढाना तो दूर, जजों के रिक्त पदों को भी वर्षों तक नहीं भरा जाता है। सब जानते हैं कि जानबूझकर जनता को न्याय से वंचित करने का षडयन्त्र चल रहा है। ऐसे में अब जनता न्यायपालिका से भी निराश होने लगी है।

ऐसे में उद्योगपतियों के हाथ की कठपुतली बन चुक मीडिया से अभी भी लोगों को आशा है। लोग मानते हैं कि मीडिया ही आम जन के दर्द को समझने और प्रस्तुत करने का प्रयास करेगा। प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की नैतिक जिम्मेदारी के साथ-साथ, यह उसका संवैधानिक कर्त्तव्य भी है कि वह आम लोगों के हक, स्वाभिमान, दर्द, स्वास्थ्य, सम्मान, इज्जत आदि के लिए अपनी प्राथमिकताएँ तय करे, लेकिन इसके विपरीत मीडिया आम लोगों के लिये लडना तो दूर, कहीं नजदीक भी नजर नहीं आ रहा है। मीडिया एक्टर, क्रिकेटर, कलेक्टर, लीडर और इंस्पेक्टर के इर्द-गिर्द घूमता हुआ उद्योगपतियों का व्यापार बन गया है। मीडियाजन धन, दौलत और एश-ओ-आराम के पीछे दौड रहे हैं। ऐसे में सच्चे मीडिया सेवकों को सामने आना होगा। उन्हें अपने पत्रकारिता धर्म का निर्वाह करना होगा। मीडिया को मानवता की कराह को सुनना होगा और संसार को सुनाना भी होगा। हालात जो भी रहे हों या जो भी है, लेकिन यह सच है कि आम लोगों में बोलने की हिम्मत नहीं है, अब मीडिया को अपनी जुबानी लोगों की पीडा एवं समस्याओं को सुनना और उठाना होगा, तब ही किसी बदलाव या चमत्कार की आशा की जा सकती है।

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा,
राष्ट्रीय अध्यक्ष भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)

प्रेस काउंसिल को नाखून भी उगेंगे और कांटनेवाले दांत भी आयेंगे

visfot.com

नई दिल्ली। नख दंतहीन संस्था के रूप में पहचाने जाने वाली संस्था प्रेस परिषद को नख-दंत युक्त बनाने की कोशिश कर रही है. इस आशय की घोषणा आज राज्यसभा में सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने की.

बीते लोकसभा चुनाव में पेड न्यूज के सवाल पर सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने चिंता जाहिर की और कहा कि “इससे संबंधित परिस्थितिजन्य साक्ष्य उपलब्ध हैं.” पेड न्यूज के सवाल को गंभीर बताते हुए अंबिका सोनी ने कहा कि इसके कारण प्रेस की आजादी पर असर पड़ेगा.

पेड न्यूज के सवाल पर प्रेस काउंसिल आफ इंडिया ने एक कमेटी का गठन किया है जो इस बारे में रिपोर्ट तैयार कर रही है लेकिन दिक्कत यह है कि रिपोर्ट तैयार हो जाने के बाद प्रेस काउंसिल के पास कार्रवाई करने का कोई अधिकार नहीं है. ऐसे में सूचना एवं प्रसारण मंत्री का यह बयान निश्चित रूप से प्रेस काउंसिल के काम काज को ताकतवर बनायेगा.

इस मौके पर बोलते हुए राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा कि प्रेस काउंसिल को भारी भरकम पेनाल्टी लगाने का अधिकार भी दिया जाए. उन्होंने कहा कि अगर कोई राजनीतिक दल मीडिया के साथ मिलकर खबरों की खरीद बिक्री में लिप्त पाया जाए तो उसके साथ भी सख्ती से निपटना चाहिए.

Indian Railways to come up with in-house magazine for passengers

exchange4media News Service

The Indian Railways has come up with a plan to provide its in-house magazine on running trains to its passengers. The Railways would float a tender in this connection soon to give the contract to an agency that could ensure timely and regular supply of books and magazines on running trains in all the zones.

The Railway Board recently approved this plan keeping in view passengers’ interests while undertaking journeys by premier trains. The in-house magazine will be provided first in all premier trains, including Rajdhani Express and Shatabdi Express.

It could be introduced in more mail and express trains, depending on the demand as well as response from the passengers. The magazine will feature stories that would interest everyone. This apart, information would be provided about the Indian Railways and its recent developments.

However, this proposal is yet to come to the Danapur Rail Division of East Central Railway. As is known, the Railways has totally banned private vendors to move on running trains for safety reasons. This move has been welcomed by the passengers.

गीताश्री को भी रामनाथ गोयनका एवार्ड

इस तरह, पति-पत्नी दोनों को गोयनका एवार्ड मिला : वरिष्ठ पत्रकार और बैग नेटवर्क के मैनेजिंग एडिटर अजीत अंजुम को गोयनका एवार्ड मिलने की खबर तो पहले ही भड़ास4मीडिया पर प्रकाशित किया जा चुका है लेकिन नई सूचना ये है कि उनकी पत्नी और जानी-मानी महिला पत्रकार गीताश्री को भी रामनाथ गोयनका एवार्ड के लिए चुना गया है. उनके पति अजीत अंजुम को पोलिटिकल रिपोर्टिंग कैटगरी में इस साल का रामनाथ गोयनका एवार्ड दिया गया है. सूत्रों के मुताबिक गीता को हिंदी जर्नलिस्ट कैटगरी प्रिंट के लिए यह एवार्ड दिया जा रहा है. इसी कैटगरी के इलेक्ट्रानिक सेक्शन में अभिसार शर्मा को एवार्ड दिया जा रहा है. बताया जा रहा है कि गीताश्री की ह्यूमन ट्रैफिकिंग की रिपोर्ट पर उन्हें रामनाथ गोयनका एवार्ड दिया जा रहा है. गीताश्री इन दिनों आउटलुक हिंदी में असिस्टेंट एडिटर के रूप में कार्यरत हैं.

गीताश्री को पहले भी ढेरों एवार्ड और फेलोशिप मिल चुके हैं. या यूं कहें कि उन्हें फेलोशिप और एवार्ड मिलते ही रहते हैं. ऐसा उनके लेखन, तेवर और जमीनी काम के कारण संभव हुआ है. आदिवासियों लड़कियों की ट्रैफिकिंग पर लगातार काम करने और तस्करों के गिरोह का पर्दाफाश करने वाली स्टोरी के लिए गीताश्री को बेस्ट इन्वेस्टिगेटिव फीचर कैटगरी में यूएनएफपीए-लाडली मीडिया अवार्ड भी दिया जा चुका है. गीताश्री की इसी रिपोर्ट पर उन्हें रामनाथ गोयनका एवार्ड देने की घोषणा की गई है.

18 वर्षों से मीडिया में सक्रिय गीताश्री प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और वेब, तीनों माध्यमों में विविध पदों पर काम कर चुकी हैं. वे पहले हिंदी पोर्टल वेबदुनिया डाट काम के दिल्ली ब्यूरो की चीफ रह चुकी हैं. डीडी न्यूज पर आने वाले रोजाना के लिए प्रिंसिपल करेस्पांडेंट के रूप में गीताश्री ने काम किया. वे इसी पद पर अक्षर भारत में भी रहीं. स्वतंत्र भारत में सीनियर करेस्पांडेंट के रूप में दिल्ली ब्यूरो में वे चार वर्ष तक काम कर चुकी हैं. बेस्ट फिल्म रिपोर्टिंग के लिए मातृश्री अवार्ड पाने वाली गीताश्री महिलाओं के मुद्दों पर जुझारू लेखन के लिए न्यूजपेपर एसोसिएशन आफ इंडिया की तरफ से भी पुरस्कृत हुई हैं. राजस्थान के बंधुवा मजदूरों पर लेखन के लिए उन्हें बेस्ट ग्रासरूट फीचर एवार्ड मिला. गीताश्री का एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुका है, जिसका नाम है- ‘कविता जितना हक’. कई किताबों की संपादक और लेखक गीताश्री सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर सक्रिय रहती हैं और इस मकसद से देश-विदेश की यात्राएं भी करती रहती है.