बेलगाम नौकरशाही को लूट की छूट!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश
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सत्ता में आने के बाद कुछ माह तक मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने अपने निवास पर जनता दरबार लगाकर, जनता की शिकायतें सुनने का प्रयास किया था, जिनका हश्र जानकर कोई भी कह सकता है कि राज्य की नौकरशाही पूरी तरह से निरंकुश एवं सरकार के नियन्त्रण से बाहर हो चुकी है। प्राप्त शिकायतों पर मुख्यमन्त्री के विशेषाधिकारी (आईएएस अफसर) की ओर से कलक्टरों एवं अन्य उच्च अधिकारियों को चिठ्ठी लिखी गयी कि मुख्यमन्त्री चाहते हैं कि जनता की शिकायतों की जाँच करके सात/दस दिन में अवगत करवाया जावे। इन पत्रों का एक वर्ष तक भी न तो जवाब दिया गया है और न हीं किसी प्रकार की जाँच की गयी है। इसके विपरीत मुख्यमन्त्री से मिलकर फरियाद करने वाले लोगों को अफसरों द्वारा अपने कार्यालय में बुलाकर धमकाया भी जा रहा है। साफ शब्दों में कहा जाता है कि मुख्यमन्त्री ने क्या कर लिया? मुख्यमन्त्री को राज करना है तो अफसरशाही के खिलाफ बकवास बन्द करनी होगी। ऐसे हालात में राजस्थान की जनता की क्या दशा होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।

भाजपा की वसुन्धरा राजे सरकार को भ्रष्ट और भू-माफिया से साठगांठ रखने वाली सरकार घोषित करके जनता से विकलांग समर्थन हासिल करने वाली राजस्थान की काँग्रेस सरकार में भी इन दिनों भ्रष्टाचार चरम पर है। दो वर्ष से भी कम समय में जनता त्रस्त हो चुकी है। जनता साफ तौर पर कहने लगी है कि राज्य के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोग अभी तक अपनी पिछली हार के भय से उबर नहीं हो पाये हैं।

पिछली बार सत्ताच्युत होने के बाद अशोक गहलोत पर यह आरोप लगाया गया था कि कर्मचारियों एवं अधिकारियों के विरोध के चलते ही काँग्रेस सत्ता से बाहर हुई थी। हार भी इतनी भयावह थी कि दो सौ विधायकों की विधानसभा में 156 में से केवल 56 विधायक ही जीत सके थे।

अशोक गहालोत की हार पर अनेक राजनैतिक विश्लेषकों ने तो यहाँ तक लिखा था कि राजस्थान के इतिहास में पहली बार वसुन्धरा राजे के नेतृत्व में भाजपा को मिला पूर्ण बहुमत अशोक गहलोग के प्रति नकारात्मक मतदान का ही परिणाम था। इस डर से राजस्थान के वर्तमान मुख्यमन्त्री इतने भयभीत हैं कि राज्य की नौकरशाही के विरुद्ध किसी भी प्रकार की कठोर कार्यवाही नहीं की कर पा रहे हैं।

सत्ता में आने के बाद कुछ माह तक मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने अपने निवास पर जनता दरबार लगाकर, जनता की शिकायतें सुनने का प्रयास किया था, जिनका हश्र जानकर कोई भी कह सकता है कि राज्य की नौकरशाही पूरी तरह से निरंकुश एवं सरकार के नियन्त्रण से बाहर हो चुकी है।

प्राप्त शिकायतों पर मुख्यमन्त्री के विशेषाधिकारी (आईएएस अफसर) की ओर से कलक्टरों एवं अन्य उच्च अधिकारियों को चिठ्ठी लिखी गयी कि मुख्यमन्त्री चाहते हैं कि जनता की शिकायतों की जाँच करके सात/दस दिन में अवगत करवाया जावे। इन पत्रों का एक वर्ष तक भी न तो जवाब दिया गया है और न हीं किसी प्रकार की जाँच की गयी है। इसके विपरीत मुख्यमन्त्री से मिलकर फरियाद करने वाले लोगों को अफसरों द्वारा अपने कार्यालय में बुलाकर धमकाया भी जा रहा है। साफ शब्दों में कहा जाता है कि मुख्यमन्त्री ने क्या कर लिया? मुख्यमन्त्री को राज करना है तो अफसरशाही के खिलाफ बकवास बन्द करनी होगी। ऐसे हालात में राजस्थान की जनता की क्या दशा होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।

मनरेगा में काम करने वाली गरीब जनता को तीन महिने तक मजदूरी नहीं मिलती है। शिकायत करने पर कोई कार्यवाही नहीं होती है। सूचना अधिकार के तहत जानकारी मांगने पर जनता को लोक सूचना अधिकारी एवं प्रथम अपील अधिकारी द्वारा सूचना या जानकारी देना तो दूर कोई जवाब तक नहीं दिया जाता है। राज्य सूचना आयुक्त के पास दूसरी अपील पेश करने पर भी ऐसे अफसरों के विरुद्ध किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं होना आश्चर्यजनक है।

पुलिस थानों में खुलकर रिश्वतखोरी एवं मनमानी चल रही है। अपराधियों के होंसले बलुन्द हैं। अपराधियों में किसी प्रकार का भय नहीं है। सरेआम अपराध करके घूमते रहते हैं।

कहने को तो पिछली सरकार द्वारा खोली गयी शराब की दुकानों में से बहुत सारी बन्द की जा चुकी हैं, लेकिन जितनी बन्द की गयी हैं, उससे कई गुनी बिना लाईसेंस के अफसरों की मेहरबानी से धडल्ले से चल रही हैं।

राज्य में मिलावट का कारोबार जोरों पर है। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि राजस्थान से बाहर रहने वाले राजस्थानी शर्मसार होने लगे हैं। मसाले, घी, दूध, आटा, कोल्ड ड्रिंक, तेल, सीमण्ट सभी में लगातार मिलावटियों के मामले सामने आ रहे हैं। आश्चर्यजनक रूप से मिलावटियों को किसी प्रकार का डर नहीं है। नकली एवं एक्सपायर्ड दवाईयाँ भी खूब बिक रही हैं। मैडीकल व्यवसाय से जुडे लोग 80 प्रतिशत तक गैर-कानूनी दवाई व्यवसाय कर रहे हैं।

भाजपा राज में भू-माफिया के खिलाफ बढचढकर आवाज उठाने वाली काँग्रेस के वर्तमान नगरीय आवास मन्त्री ने जयपुर में नया जयपुर बनाकर आगरा रोड एवं दिल्ली रोड पर आम लोगों द्वारा वर्षों की मेहनत की कमाई से खरीदे गये गये भूखण्डों को एवं किसानों को अपनी जमीन को औने-पौने दाम पर बेचने को विवश कर दिया है। जयपुर विकास प्राधिकरण द्वारा 90 बी (भू-रूपान्तरण) पर तो पाबन्दी लगादी है, लेकिन भू-बेचान जारी रखने के लिये रजिस्ट्रिंयाँ चालू हैं। आवाप्ती की तलवार लटका दी गयी है। जिसका सीधा सा सन्देश है कि सरकार द्वारा कृषि भूमि को आवासीय भूमि में परिवर्तन नहीं किया जायेगा, लेकिन सस्ती दर पर भू-माफिया को खरीदने की पूरी आजादी है।

केवल इतना ही नहीं, बल्कि आगरा रोड एवं दिल्ली रोड पर प्रस्ताविक नये जयपुर के लिये घोषित क्षेत्र में निर्माण पर भी पाबन्दी लगादी गयी है और साथ ही यह भी सन्देश प्रचारित कर दिया गया है कि जिस किसी के प्लाट में मकान निर्माण हो चुका है, उसे अवाप्त नहीं किया जायेगा। इसके चलते इस क्षेत्र में हर माह कम से कम 500 नये मकानों की नींव रखी जा रही है। यह तब हो रहा है, जबकि नये मकानों के निर्माण की रोकथाम के लिये विशेष दस्ता नियुक्त किया गया है। यह दस्ता मकान निर्माण तो नहीं रोक पा रहा, लेकिन हर मकान निर्माता पचास हजार से एक लाख रुपये तक जयपुर विकास प्राधिकरण के इन अफसरों को भेट चढा कर आसानी से मकान निर्माण जरूर कर पा रहा है। जो कोई रिश्वत नहीं देता है, उसके मकान को ध्वस्त कर दिया जाता है।

क्या राजस्थान के आवासीय मन्त्री (जो राज्य के गृहमन्त्री भी हैं) और मुख्यमन्त्री इतने भोले और मासूम हैं कि उन्हें जयपुर विकास प्राधिकरण के अफसरों के इस गोरखधन्धे की कोई जानकारी ही नहीं है। सच्चाई तो यह है कि जनता द्वारा हर महिने इस बारे में सैकडों शिकायतें मुख्यमन्त्री एवं आवासीय मन्त्री को भेजी जाती हैं, जिन्हें उन्हीं भ्रष्ट अफसरों को जरूरी कार्यवाही के लिये अग्रेषित कर दिया जाता है, जिनके विरुद्ध शिकायत की गयी होती है। जहाँ पर क्या कार्यवाही हो सकती है, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि राज्य की नौकरशाही पूरी तरह से बेलगाम हो चुकी है और सरकार का या तो नौकरशाही पर नियन्त्रण नहीं है या पिछली बार काँग्रेस एवं अशोक गहलोत से नाराज हो चुकी नौकरशाही को खुश करने के लिये स्वयं सरकार ने ही खुली छूट दे रखी है कि बेशक जितना कमाया जावे, उतना कमा लो, लेकिन मेहरबानी करके नाराज नहीं हों। अब तो ऐसा लगने लगा है कि राज्य सरकार को जनता का खून पीने से कोई फर्क ही नहीं पडता।

कुछ लोग तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि राहुल गाँधी का वरदहस्त प्राप्त केन्द्रीय ग्रामीण विकास मन्त्री (जो राजस्थान में काँग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं) सी. पी जोशी के लगातार दबाव एवं राज्य सरकार के मामलो में दखलांजी के चलते अशोक गहलोत को इस कार्यकाल के बाद मुख्यमन्त्री बनने की कोई उम्मीद नहीं है, इसलिये वे किसी भी तरह से अपना कार्यकाल पूर्ण करना चाहते हैं। अगली बार काँग्रेस हारे तो खूब हारे उन्हें क्या फर्क पडने वाला है!

-लेखक होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविध विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषय के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें 13 सितम्बर, 2010 तक, 4463 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत

देश की सत्ता अब पत्रकारों के हाथों में सौंप देनी चाहिए : मनोज ब्लॉगर

मैं आज तक कभी भी ये समझ नही पाया कि एक पत्रकार का क्या काम है? पहले मुझे लगता था कि उनका काम तथ्यों को जनता के सामने रखना होता है। यदि कोई घटना/दुर्घटना हुई है तो वो उसके बारे में लोगों को बताता है। पर धीरे धीरे मुझे पता चला कि उनका काम महज किसी घटना के बारे में बताना ही नही बल्कि निष्कर्ष निकालना भी उन्ही का काम है।

यदि कोई murder हुआ है, तो ये बताना पत्रकार का काम है कि murder किसने किया है? किसी अदालत, पुलिस, गवाह की कोई जरूरत नही है। बाद में यदि वो व्यक्ति अदालत के द्वारा बरी कर दिया जाता है, फिर…… शायद अदालत ही दोषी है ……

कुछ और भी काम हैं पत्रकारों के, जैसे कि, ये ख्याल रखना कि संजय दत्त को जेल में खाने को क्या मिला ? सलमान खान से जेल में मिलने जब कैटरिना कैफ आयीं तो उन्होने क्या पहना था? पूछिये तो वही जबाब जो एकता कपूर देती हैं, वे लोग तो वही दिखा रहे हैं जो जनता देखना चाहती है,….. पर ये काम पहले किसी और ग्रुप का नही था?

हर इलेक्शन के पहले ये लोग एक game खेलते हैं, “EXIT POLL”…. हर साल इनका %error of margin करीब १० या २० के आसपास होता है और हर बार ये उसे मात भी दे देते हैं। फिर भी, ये इस प्रथा को साल दर साल ढोए जा रहे हैं… और आश्चर्य होता है कि उसे “SCIENTIFIC” करार देते हैं।

आजकल एक और नया काम खोजा है, पत्रकार भाइयों ने, दूसरी दुनिया के सचाइयों को हमारे समक्ष रखने का। ये बताते हैं कि आत्माओं से कैसे मिला जा सकता है? भूत और प्रेत में क्या अंतर है? चुडैल और प्रेत में कौन हमारा ज्यादा बड़ा दुश्मन/दोस्त है? और अब तो स्वर्ग का रास्ता भी दिखा रहे हैं….. धन्यवाद…..

पर इन सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण जिमेदारी जो इन लोगों ने अपने नाजुक कन्धों पर उठा रखी है, वो है, नैतिकता। ऐसा लगता है कि नैतिकता आज के जमाने में सिमट कर बस इन्हें के दामन में रह गयी है। तभी तो हर छोटी बड़ी बात पर ये लोग क्या मुख्यमंत्री और क्या प्रधानमंत्री सभी को नैतिकता की सिख दे बैठते हैं। क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए, सब कुछ इन्हें पता होता है। मुझे तो लगता है देश की सत्ता अब इन्हीं लोगों के हाथों में सौंप देनी चाहिए और फिर यकीं मानिए हमारी सारी समस्या देखते देखते गायब हो जायेगी।
आपको नही लगता???

जैसा कि मनोज मनोज ने अपने ब्लॉग में लिखा
http://jaanebhido.blogspot.com/2007/11/blog-post_10.html

मै आपको मीडिया का काला चेहरा दिखाता हूँ : इफ्तिखार गिलानी

आवेश तिवारी
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मैं नहीं जानता ,नीता शर्मा की पतित पत्रकारिता के अब तक कितने बेगुनाह शिकार हुए हैं ,लेकिन उनको वर्ष का सर्वश्रेष्ट रिपोर्टर घोषित किया जाना ये बताता है कि समकालीन पत्रकारिता में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा |अब जबकि मुझ पर लगे सारे आरोप निराधार साबित हो चुके हैं ,वो अपनी गैरजिम्मेदाराना रिपोर्टिंग को लेकर माफ़ी मांग सकती थी मगर उन्होंने नहीं माँगा ,हम जानते हैं आगे भी वो माफ़ी नहीं मांगेंगी |
मै इफ्तिखार गिलानी जो कि एक पत्रकार है आज देश की जनता और मीडिया को हिन्दुस्तानी पत्रकारिता का वो चेहरा दिखता हूँ ,जिनकी वजह से मुझे और मेरे परिवार को बेहिसाब शारीरिक और मानसिक यातनाएं मिली ,इन्होने मुझ बेगुनाह की जिंदगी को नरक बना दिया था ,मुझे मीडिया के इस चेहरे से नाराजगी नहीं अफ़सोस है और आगे भी रहेगा |
10-6-2002 वो मेरे मीडिया ट्रायल का पहला दिन था जब “दैनिक हिंदुस्तान ने खबर छापी “सैयद अली गिलानी के दामाद के घर आयकर छापों में बेहिसाब संपत्ति ,और संवेदनशील दस्तावेज बरामद” ,खुदा गवाह है मेरे घर में उस वक़्त केवल 3530 रूपए थे ,और जिन दस्तावेजों को संवेदनशील बताया गया वो इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध थे |

11-6-2002- हिंदुस्तान टाइम्स के विधि संवाददाता ने पूर्व में कोर्ट की कार्यवाही की इमानदारी से रिपोर्टिंग की थी ,लेकिन आज सुबह सब कुछ बदल चूका था ,पुलिस मुख्यालय में होने वाली नियमित ब्रीफिंग में एक अधिकारी ने नीता शर्मा को कुछ एक्सक्लूसिव देने का आफर दिया था ,वो हिंदुस्तान टाइम्स के पन्ने पर साफ़ नजर आ रहा था |खबर थी “iftikhar gilani admits isi link “,वहीँ “दैनिक हिंदुस्तान “ने शीर्षक दिया “महँगी गाड़ियों से आते थे इफ्तिखार से मिलने वाले |

“पायनियर “इफ्तिखार गिलानी जो सैयद अली गिलानी का दामाद भी है ,पाकिस्तान स्थित हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर इन चीफ सैयद सलाउदीन का का दाहिना हाँथ है .दिल्ली पुलिस ने अपनी जांच में पाया है कि इफ्तिखार सैयद सलाउदीन को हिन्दुस्तानी रक्षा एजेंसियों कि गतिविधियों के बारे में गुप्त जानकारी देता था और इसके लिए वो अपनी पत्रकारिता का इस्तेमाल करता था |सिर्फ इतना हे नहीं इफ्तिखार को दिल्ली में किसी विशेष मकसद को पूरा करने के लिए रखा गया था |प्रेस इन्फार्मेशन ब्यूरो “से मान्यता का लाभ इफ्तिखार प्रतिबंधित क्षेत्रों में जाने और रक्षा से जुड़े संस्थानों में जाने और वहां से सूचनाएँ निकालने के लिए करता था |उसने अभिव्यक्ति कि स्वतंत्र और पत्रकार होने का नाजायज फायदा उठाया |एजेंसियां अब इस दिशा में काम कर रही हैं कि अपनी मान्यता का लाभ उसने कहाँ कहाँ और कैसे लिया है |
“The statesman ‘गिरफ्तार पत्रकार गिलानी अकूत संपत्ति का मालिक है ,और इसका लन्दन स्थित स्टेंडर्ड चार्टर्ड बेंक में खाता है जिसमे अलग अलग माध्यों से बेहिसाब पैसे आते हैं |
दैनिक जागरण -ये अखबार मेरी गिरफ्तारी के बाद से ही पुलिस की जबान बोलता रहा ,में दैनिक जागरण में छापी ख़बरों से निकले सवालों का जवाब देते देते थक चुका था ,हद तो तब हो गयी जब उसने ये छापा कि “गिलानी के दामाद के लाकर से अरबों रूपए की विदेश मुद्रा मिली ”

12-6-2002- हिंदुस्तान टाइम्स की खबर का शीर्षक बदला हुआ था,उन्होंने मेरी पत्नी के हवाले से मेरे और आई एस आई के बीच कोई सम्बंध न होने की बात छपी ,अब शीर्षक था “iftikhar didn,t admits to isi link -wife”

13-6-2002 –
FRONTLINE -अजीब बात थी सभी अख़बारों में मेरे पास से लेपटॉप बरामद होने के सम्बंध में खबर छापी थी ,सच तो ये है कि मैंने आज तक अपनी जिंदगी में कभी भी लेपटाप का इस्तेमाल नहीं किया ,अफ़सोस जिम्मेदार कहे जाने वाली फ्रंटलाइन ने भी एक पूरी तरह से बेबुनियाद खबर छापी जिसमे मेरे पास लेपटॉप बरामद होने के साथ साथ इस बात का भी जिक्र था कि मै दो पाकिस्तानी अख़बारों “द नेशन “और “फ्राईडे टाइम्स” का रेजिडेंट एडिटर हूँ |

अगस्त 2002- इन अखबारों की सनसनीखेज और झूठी ख़बरों ने मेरी मुश्किलें बढा दी थी| मै इफ्तिखार गिलानी अपने देश की इलेक्ट्रानिक मीडिया के उस चेहरे को नहीं भूल पाता जो मुझे हर पल गुनाहगार साबित करने में लगा था |9 JUNE 2002 को जब मेरे घर पर छापा मारा गया उस वत दोपहर के २ बज रहे थे ,मुझे और मेरी पत्नी को एक कमरे में बंद कर दिया गया ,शाम सात बजे जब मुझे कमरे से निकला गया ,वहां मौजूद एक व्यक्ति ने टीवी आन कर दिया .मैं “आजतक “पर आतंकवादी घोषित किया जा चूका था |
मैंने देखा आजतक का संवाददाता मेरे घर के बाहर लगे नेम प्लेट के शाट लेकर मुझे फरार बता रहा था और मै खिडकियों की ओट में सुरक्षाकर्मियों से घिरा हुआ उसे साफ़ देख रहा था |
मै इफ्तिखार गिलानी कश्मीरी पत्रकारिता के पितामह रतन मोहन लाल के वो शब्द हर पल याद करता हूँ “आप अपनी कलम से दुनिया भर की बुराइयों को साफ़ नहीं कर सकते ,लेकिन कोशिश कर सकते हैं “|मै इफ्तिखार गिलानी अपनी शिकायत दर्ज कराता हूँ |

Link :

http://www.network6.in/2010/09/04/%E0%A4%AE%E0%A5%88-%E0%A4%87%E0%A4%AB%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%97%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80-%E0%A4%86%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%AE/

मीडिया की ‘कृपा’ से जटिल हुए भारत-चीन संबंध

अमित बरुआ
बीबीसी हिंदी सेवा प्रमुख
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भारत और चीन के संबंध अभी उथल-पुथल के दौर में हैं और आगे इसकी रूप-रेखा क्या होगी ये अनिश्चित है. और ये बात यदि भारत के वरिष्ठ अधिकारी कह रहे हों – चाहे पर्दे के पीछे से ही सही – तो उस पर ध्यान देना ज़रूरी हो जाता है. इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि भारत-चीन सीमा पर पिछले 30 वर्षों में कोई गोली नहीं चली, गोला नहीं फूटा. साथ ही इस बात से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि दोनों देशों के बीच 2005 से ही रणनीतिक और सहयोगात्मक साझेदारी है – दोनों देशों के संबंधों पर जो आँच आनी थी वो आ चुकी है.

भारत सरकार के अधिकारियों ने बीबीसी को बताया,”मीडिया की कृपा से, भारत-चीन संबंध जटिल हो चुके हैं. अब आगे क्या होनेवाला है किसी को पता नहीं”.

तो भारतीय मीडिया में एक ‘कहानी’ चली और सरकार ने उसपर ये कहा कि उसकी इसपर निगाह है. और उधर चीन की निगाह इस बात से टेढ़ी हो जाती है कि भारत सरकार ऐसी ‘कहानियों’ का खंडन नहीं करती, बल्कि ये कहती है कि वह इस मुद्दे को देख रही है.

16 अक्तूबर को एक अख़बार में इस रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद कि चीन यार्लुंग ज़ांग्बो नदी पर एक बाँध बना रहा है एक भारतीय प्रवक्ता ने ये प्रतिक्रिया दी – “हम अख़बार की इस रिपोर्ट के बारे में पड़ताल कर रहे हैं कि हाल के समय में ऐसा कुछ तो नहीं हुआ जिससे पता चलता हो कि चीन ने हमसे जो कुछ कहा था उस स्थिति में कुछ बदलाव आ गया है…चीन सरकार ने (पूर्व में) इस बात का सरासर खंडन किया है कि वह ब्रह्मपुत्र नदी पर किसी बड़े पैमाने की परियोजना चलाने की तैयारी कर रहा है”.

भारतीय अधिकारी ऐसी ही रिपोर्टों और ऐसी ही प्रतिक्रियाओं का उदाहरण दे रहे हैं. वैसे कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई है. पाँच नवंबर को भारत के जल संसाधन मंत्री पवन बंसल ने कहा,”जिस जगह वे बाँध बना रहे हैं वो हमारी सीमा से 1100 किलोमीटर दूर है. ये एक छोटा बाँध है, कोई बड़ा जल कुंड नहीं. उनके पास पहले ही से ऐसे 15 बाँध हैं जिसका इस्तेमाल वे स्थानीय ज़रूरतों के लिए कर रहे हैं”.

पवन बंसल ने कहा कि भारत के लिए चिंता की बात तब होनी चाहिए जब पानी का रास्ता बदला जा रहा हो. उन्होंने कहा,”अभी तक नदी का मार्ग बदलने का ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है. अभी चिंता की कोई बात नहीं है मगर हमें हमेशा सतर्क रहना चाहिए”. मगर एक रिपोर्ट जब बाहर आ चुकी हो तो उसका खंडन होने में किसकी दिलचस्पी रहती है. शायद बहुत कम लोगों की.अधिकारी जानना चाहते हैं कि भारत किसी नदी पनबिजली परियोजना का विरोध कर भी सकता है तो कैसे क्योंकि भारत भी तो पाकिस्तान में जानेवाली चेनाब नदी पर बगलिहार बाँध बना रहा है.

सीमा विवाद

नाम ना बताने की शर्त पर अधिकारी ये भी कहते हैं कि चीन के साथ सीमा विवाद के मामले में कुछ भी बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है. भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं 30 अक्तूबर को दिल्ली में इसी तरह की बात कह चुके हैं कि सीमा विवाद के निपटारे को छोड़कर दोनों देश सीमा पर शांति बनाए रखने पर सहमत हुए हैं. सीमा विवाद के निपटारे की दिशा में बहुत कुछ नहीं हो सका है. भारत का राजनीतिक नेतृत्व इस विवाद को सुलझाने के लिए कई बार प्रयास कर चुके हैं मगर लगता है चीन की इसमें दिलचस्पी नहीं है

मनमोहन सिंह ज़ोर देकर कहते हैं – “अभी यही स्थिति है”. अधिकारियों का मत है कि सीमा विवाद पर विशेष प्रतिनिधियों के बीच 14 चक्रों में हुई बातचीत से कुछ नहीं निकल सका है. भारत का राजनीतिक नेतृत्व इस विवाद को सुलझाने के लिए कई बार प्रयास कर चुके हैं मगर लगता है चीन की इसमें दिलचस्पी नहीं है”. अब दलाई लामा के अरूणाचल प्रदेश का दौरा करने से भारत और चीन के बीच का सीमा विवाद एक बार फिर सतह पर आ गया है क्योंकि चीन अरूणाचल को अपना हिस्सा बताता है. पिछले कुछ महीनों में दोनों देशों के बीच बड़ी सावधानी से विकसित किया गए संबंध को मीडिया में आई रिपोर्टों से काफी़ धक्का लगा है और चीन सरकार को लगता है कि भारतीय नेताओं को बिल्कुल शुरू में ही इनका खंडन कर देना चाहिए था.

समझदारी

भारत में अभी समझदारी से बोलनेवाले लोग कम हैं और आर्थिक सफलता के खुमार में भारत का कुलीन तबका मानता है कि समय आ गया है जब चीन की परवाह करना बंद किया जाए. हालाँकि वे इस तथ्य की परवाह नहीं करते की चीन एक आर्थिक महाशक्ति है, और भारत नहीं. चीन पर पैनी नज़र रखनेवाले विश्लेषक नयन चंदा अख़बार टाइम्स ऑफ़ इंडिया में लिखते हैं,”चीन के साथ संबंधों को सैनिक ताक़त की कसौटी पर तौलना बहुत बड़ी भूल होगी. चीन से भारत को मिलनेवाली असल चुनौती इन देशों की ठंडी सीमा से आनेवाली चुनौती नहीं बल्कि इसके शहरों की चमक-दमक, उसके बुनियादी ढाँचे, उसके विकास करते उद्योग-धंधों, उसके अच्छे स्कूलों और उसकी उभरती स्वच्छ ऊर्जा तकनीक से मिलनेवाली चुनौती है….वहीं भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी चारों तरफ़ व्याप्त ग़रीबी, कुपोषण, असमानता और अन्याय के अलावा माओवादी हिंसा से भी घिरी है जो चीन का कतई मुक़ाबला नहीं कर सकती”.

वे आगे लिखते हैं,”इसका मतलब ये हुआ कि यदि कभी कोई सैनिक संघर्ष हुआ भी तो बहुत संभव है कि अंतरराष्ट्रीय तौर पर भारत अलग-थलग पड़ जाए. पैसे की अपनी ज़बान होती है और ऐसा लगता है कि अभी के समय में लोगों की पसंद मंदारिन है”. भारतीय अधिकारी द्विपक्षीय मुद्दों पर मीडिया की रिपोर्टिंग से मचे बवाल से बिल्कुल थक चुके हैं. असैनिक नौकरशाही जो अभी तक भारत-चीन समीकरणों पर ख़ामोशी अख़्तियार किए रहते रहे हैं, वे भारतीय मीडिया में चीन-विरोधी चर्चाओं से पार नहीं पा रहे.
ऐसे में भारत-चीन संबंध एक दिशाहीन क्षेत्र में प्रवेश कर गए हैं.

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मीडिया को मजबूत करने की जिम्मेदारी भी समाज को ही उठानी होगी

विमल कुमार सिंह

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मीडिया और मनुष्य का नाता बहुत पुराना है। किन्तु, जिस मीडिया की हम चर्चा कर रहे हैं, उसका जन्म लगभग सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले उस समय हुआ जब द्योगिक क्रांति और उससे उत्पन्न नवीन सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं यूरोप में धीरे-धीरे सामने आ रही थीं।

अखबार के रूप में अवतरित इस मीडिया का आने वाले वर्षों में ऐसा महत्व बढ़ा कि उसे किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का आवश्यक अंग माना जाने लगा। उसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की संज्ञा दे दी गई। मीडिया के आकार-प्रकार में भी बढ़ोतरी हुई। जहां पहले अखबार कुछ सौ या कुछ हजार के दायरे में एक खास इलाके तक सीमित रहते थे, वहीं अब वे लाखों में और एक बड़े इलाके तक पहुंचने लगे। इसी दौरान रेडियो और टेलीविजन ने भी मीडिया के सशक्त और प्रभावी माध्यमों के रूप में अपनी जगह बना ली। आज मीडिया अपने विभिन्न स्वरूपों में एक ऐसी ताकत बन गई है जिसके पास लोकतांत्रिक व्यवस्था के विभिन्न सत्ता प्रतिष्ठानों को अंकुश में रखने की ताकत है।

पिछले कुछ दशकों में जहां मीडिया की ताकत बढ़ी है, वहीं मीडिया के भीतर पत्रकारों की ताकत घटी है। आज मीडिया की सफलता में पत्रकारिता से अधिक महत्व पूंजी और व्यावसायिक सूझ-बूझ को दिया जाता है। पूंजी और मुनाफे की इस दौड़ में वे लोग पीछे छूटते गए जो मीडिया को व्यवसाय कम, मिशन अधिक मानते थे। जबकि, वे लोग मीलों आगे निकल गए जिन्होंने मुनाफे को अपना मुख्य लक्ष्य बनाया। आज जितने भी बड़े मीडिया समूह हैं उनमें यही लोग हैं। समाज के लिए बाजारीकरण और केन्द्रीयकरण की प्रवृत्तियां हानिकारक हो सकती हैं। लेकिन, इनके लिए यह बड़े काम की चीज है क्योंकि, इससे इन्हें विज्ञापन रूपी अमृत की प्राप्ति होती है। समाज का हित इस वर्ग को तभी तक दिखाई देता है जब तक उसके मुनाफे पर असर न पड़ता हो। सत्ता पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अपना मुनाफा बढ़ाने में इसे कोई संकोच नहीं है। यह सत्ता पर अंकुश रख कर ही संतुष्ट नहीं है। इसे तो सत्ता में परोक्ष रूप से भागीदारी भी चाहिए। अपनी इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण इन बड़े मीडिया समूहों से किसी सार्थक सामाजिक बदलाव में मदद की उम्मीद करना बेमानी हो गया है।

बड़े मीडिया समूहों के इस दौर में छोटी और मझोली मीडिया कमजोर हुई है, पर खत्म नहीं। इस वर्ग की उपस्थिति दैनिक अखबार और इलेक्ट्रानिक चैनलों में तो नहीं है, पर साप्ताहिक/पाक्षिक/मासिक एवं त्रैमासिक पत्र-पत्रिकाओं में यह आज भी जीवित है। मीडिया के इस वर्ग को दो भागों में बांटा जा सकता है। पहले वर्ग में वे प्रकाशन हैं जो व्यक्तिगत स्वामित्व और व्यक्तिगत पूंजी के बल पर चल रहे हैं। दूसरे वर्ग में वे पत्र-पत्रिकाएं शामिल हैं जो संस्थाओं द्वारा समाज के पैसे और कार्यकर्ताओं के परिश्रम से निकलती हैं। इन्हें हम सही अर्थों में सामाजिक मीडिया कह सकते हैं। मुनाफे के लिए नहीं बल्कि समाज को सार्थक दिशा देने के लिए मीडिया का जो वर्ग तत्पर है, वह यही है। हालांकि इस तत्परता के बावजूद यह वर्ग प्रभावी नहीं है। कारण है पूंजी की कमी और बुनियादी सुविधाओं व पेशेवर क्षमताओं का भारी अभाव। इस सबके बावजूद यदि सार्थक सामाजिक बदलाव में मीडिया का इस्तेमाल करना है तो आशा की किरण यहीं है। इस वर्ग को मजबूत करने के अलावा और कोई चारा नहीं है।

समाज के लिए समर्पित इस मीडिया को मजबूत करने की जिम्मेदारी भी समाज को ही उठानी होगी। आज आवश्यकता एक ऐसे केन्द्रीय संस्थान की है जो समाज के सम्मिलित प्रयास से चल रही पत्र-पत्रिकाओं को उच्चस्तरीय प्रकाशन सामग्री उपलब्ध कराने के साथ ही आवश्यक विपणन एवं तकनीकी सहयोग भी दे। उनकी नीतियों में तालमेल बिठाए और उनके लिए वह सब कुछ करे जिससे वे सार्थक सामाजिक बदलाव के सशक्त माध्यम बन सकें। उनमें इतनी ताकत आ जाए कि वे धीरे-धीरे दैनिक अखबार, इलेक्ट्रानिक चैनल और रेडियो के क्षेत्र में भी मजबूती के साथ स्वयं को स्थापित कर सकें। अधिकतर लोगों के लिए ये बातें कपोलकल्पना हो सकती हैं। लेकिन, यदि सही लोग सही दिशा में काम करें तो यह सब संभव है। और जब ऐसा होगा तब पत्रकारिता का अर्थ बदल जाएगा। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने की बजाय लोकतंत्र की छत बन जाएगी, जिसकी छाया में समाज प्रगति की नित नई ऊंचाइयां छूएगा।